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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
15. अनिर्वचनीय प्रेम
अहंता-ममता रूपी दोषों के मिटने के बाद जहाँ अहंता (मैं-पन) थी, वहाँ ‘नित्यमिलन’ प्रकट होता है और जहाँ ममता (मेरा-पन) थी, वहाँ ‘नित्यविरह’ प्रकट होता है वास्तव में नित्यमिलन (नित्ययोग) और नित्यविरह-दोनों जीव में सदा से विद्यमान हैं, पर भगवान् से विमुख होकर संसार के सम्मुख हो जाने से ‘नित्यमिलन’ ने अहंता का रूप धारण कर लिया और ‘नित्यविरह’ ने ममता का रूप धारण कर लिया। अहंता और ममता के पैदा होने से प्रेम दब गया और संसार की आसक्ति या मोह उत्पन्न हो गया। तात्पर्य यह हुआ कि दोषों के रहने से संसार की आसक्ति बढ़ती है और दोषों के मिटने से शान्ति मिलती है एवं शान्ति में सन्तोष न करने से प्रेम बढ़ता है। संसार में प्रियता काम क्रोधादि दोषों से होती है, पर भगवान् में प्रियता निर्दोषता से होती है। जब तक अपने में थोड़ा भी संसार का आकर्षण है, तब तक प्रेम प्राप्त नहीं हुआ है; क्योंकि प्रेम की जगह कामने ले ली! प्रेम प्राप्त होने पर संसार में किंचिन्मात्र भी आकर्षण नहीं रहता। प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान तभी होता है, जब उसमें पहली अवस्था का क्षय और दूसरी अवस्था का उदय होता है। पहली अवस्था का त्याग ‘नित्यविरह’ और दूसरी अवस्था की प्राप्ति ‘नित्यमिलन’ है। वास्तव में देखा जाय तो प्रेम में क्षय या उदय, त्याग या प्राप्ति है ही नहीं, प्रत्युत प्रेम के नित्य-निरन्तर ज्यों-के-त्यों रहते हुए ही प्रतिक्षण वर्धमान होने से उसमें क्षय या उदय की प्रतीति होती है। प्रेम में प्रेमी को अपने में एक कमी का भान होता है, जिससे उसमें ‘प्रेम और बढ़े, और बढे़’ यह लालसा (भूख) होती है। अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो ‘और बढ़े, और बढ़े’ इस लालसा में प्रेम की प्राप्ति भी है और कमी भी! कमी नहीं है, फिर भी कमी दीखती है। इसलिये प्रेम को अनिर्वचनीय कहा गया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (नारद0 51-52)
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