मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 94

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

14. रासलीला-प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम

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भगवान् का मिलन और विरह दोनों ही नित्य हैं, अनिर्वचनीय हैं, दिव्य हैं, जिनसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है। मिलन में प्रेम को अपने में प्रेम की कमी मालूम देती है कि जैसे भगवान् हैं, वैसा (भगवान् के लायक) मेरे में प्रेम नहीं है; और विरह में प्रेम को कभी प्रेमास्पद की विस्मृति नहीं होती, प्रत्युत निरन्तर स्मृति (तल्लीनता) बनी रहती है। यह मिलन और विहर-दोनों भगवान् देते हैं और दोनों भगवत्स्वरूप ही होते हैं। वे ‘विरह’ इसलिये देते हैं कि भक्त अपने में प्रेम की कमी का अनुभव करे और कमी का अनुभव होने से प्रेम बढ़े। वे ‘मिलन’ इसलिये देते हैं कि भक्त प्रेम का अनुभव करे, आस्वादन करे।

भक्त का भगवान् में दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि कोई भी भाव हो, भक्त की अपनी अलग सत्ता नहीं होती; क्योंकि प्रेम में भक्त और भगवान् एक होकर दो होते हैं और दो होकर भी एक रहते हैं। इसलिये प्रेमी और प्रेमास्पद-दोनों में कभी सेवक स्वामी हो जाता है, कभी स्वामी सेवक हो जाता है। शंकर जी के लिये कहा भी है- ‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ [1]। दक्षिण भारत में एक मन्दिर है, जिसमें शंकर जी ने नन्दी को उठा रखा है! कभी नन्दी के ऊपर शंकर जी हैं, कभी शंकर जी के ऊपर नन्दी हैं! कभी भगवान् भक्त के इष्ट बन जाते हैं, कभी भक्त भगवान् का इष्ट बन जाता है-‘इष्टोअसि मे दृढमिति’ [2]। कभी श्रीकृष्ण-राधा बन जाते हैं, कभी राधा श्रीकृष्ण बन जाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (मानस, बाल0 15/2)
  2. (गीता 18/64)

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