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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
13. अलौकिक प्रेम
शरत्पूर्णिमा की चाँदनी रात में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी बाँसुरी बजानी आरम्भ की, तब उसकी मधुर एवं चित्ताकर्षक ध्वनि को सुनकर गोपियाँ जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में श्रीकृष्ण से मिलने के लिये वेग पूर्वक चल पड़ीं। यह प्रेम की ऐसी विलक्षण स्थिति थी कि स्वयं गोपियों को ही पता नहीं था कि हम कौन हैं! कहाँ जा रही हैं! क्यों जा रही हैं! भगवान् का सब कुछ दिव्य है, अलौकिक है, चिन्मय है! अतः उनकी बाँसुरी भी दिव्य थी और उसकी ध्वनि भी। उस दिव्य ध्वनि को सुनने पर गोपियों में भी जडता नहीं रही और वे चिन्मय होकर चिन्मय से मिलने के लिये चल पड़ी! ‘काम’ (लौकिक श्रृंगार)-में स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे से सुख लेना चाहते हैं, एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं। इसलिये उनमें विशेष सावधानी रहती है और वे अपने शरीर को सजाते हैं। परन्तु ‘प्रेम’ में सुख लेने का, अपनी ओर खींचने का किंचिन्मात्र भी भाव न होने से यह सावधानी नहीं रहती, प्रत्युत अपने शरीर की भी विस्मृति हो जाती है, इसीलिये गोपियाँ अपने को सजाना, श्रृंगार करना भूल गयीं और वंशीध्वनि सुनते ही वे जैसी थीं, वैसी ही अस्त-व्यस्त वस्त्रों के साथ चल पड़ी-‘व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः’ (श्रीमदा0 10/29/7)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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