मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 65

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

9. साधक कौन?

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संसार में हमें दो चीजें दीखती हैं- पदार्थ और क्रिया। ये दोनों ही प्रकृति का कार्य है। साधारण दृष्टि से हम लोगों को संसार में पदार्थ प्रधान दीखता है, पर वास्तव में क्रिया प्रधान है, पदार्थ प्रधान नहीं है। पदार्थ में हरदम परिवर्तन-ही-परिवर्तन होता है तो फिर क्रिया ही हुई, पदार्थ कहाँ हुआ? क्रिया का पुंज ही पदार्थरूप से दीखता है। वह क्रिया भी बदलने वाली है। ये क्रिया और पदार्थ प्रकृति का स्वरूप हैं, हमारा स्वरूप नहीं है। हमारा स्वरूप क्रिया और पदार्थ से रहित ‘अव्यक्त’ है। जैसे हम मकान में बैठे हुए हैं तो माकन अलग है, हम अलग हैं। इसलिये हम मकान को छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे ही हम शरीर में बैठे हुए हैं। शरीर यहीं पड़ा रहता है, हम चले जाते हैं। मकान पीछे रहता है, हम अलग हो जाते हैं तो वास्तव में हम पहले से ही उससे अलग हैं। वास्तव में हम शरीर में रहते नहीं हैं, प्रत्युत रहना मान लेते हैं। इसलिये भगवान् ने कहा है- ‘अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’[1]

‘अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त हैं।’ तात्पर्य है कि स्वरूप सर्वव्यापी है, एक शरीर में सीमित नहीं है- ‘नित्यः सर्वभगतः’|[2] जब तक वह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तब तक वह साधक है। शरीर का सम्बन्ध सर्वथा छूटने पर वह सिद्ध हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2। 17
  2. गीता 2। 24

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