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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
7. अभिमान कैसे छूटे ?
एक समय बाँकुड़े जिले में अकाल पड़ा। सेठ जी श्रीजयदयाल जी गोयन्दका ने नियम रख दिया कि कोई भी आदमी आकर दो घन्टे कीर्तन करे और चावल ले जाय। कारण कि अगर उनको पैसा देंगे तो उससे वे अशुद्ध वस्तु खरीदेंगे। इसलिये पैसा न देकर चावल देते थे। इस तरह सौ-सवा सौ जगह ऐसे केन्द्र बना दिये, जहाँ लोग जाकर कीर्तन करते थे और चावल ले जाते थे। एक दिन सेठ जी वहाँ गये। रात्रि के समय बंगाली लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने सेठ जी से कहा कि महाराज! आपने हमारे जिले को जिला दिया, नहीं तो बिना अन्न के लोग भूखों मर जाते! आपने बड़ी कृपा की। सेठ जी ने बदले में बहुत बढ़िया बात कही कि आप लोग झूठी प्रशंसा करते हो। हमने मारवाड़ से यहाँ आकर जितने रूपये कमाये, वे सब-के-सब लग जायँ, तब तक तो आपकी ही चीज आपको दी है, हमारी चीज दी ही नहीं। हम मारवाड़ से लाकर यहाँ दें, तब आप ऐसा कह सकते हो। हमने तो यहाँ से कमाया हुआ धन भी पूरा दिया नहीं है। सेठ जी ने केवल सभ्यता की दृष्टि से यह बात नहीं कही, प्रत्युत हृदय से यह बात कही। सेठ जी के छोटे भाई हरिकृष्णदास जी से पूछा गया कि आपने सबको चावल देने का इतना काम शुरू किया है, इसमें कहाँ तक पैसा लगाने का विचार किया है? उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही कि जब तक माँगने वालों की जो दशा है- वैसी दशा हमारी न हो जाय, तब तक! कोई धनी आदमी क्या ऐसा कह सकता है? उनके मन में यह अभिमान ही नहीं है कि हम इतना उपकार करते हैं। हम लोग विचार ही नहीं करते कि भगवान की हम पर कितनी विलक्षण कृपा है! हम क्या थे, क्या हो गये! भगवान् ने कृपा करके क्या बना दिया-इस तरफ देखते ही नहीं, सोचते ही नहीं, समझते ही नहीं। अपने-अपने जीवन को देखें तो मालूम होता है कि हम कैसे थे और भगवान् ने कैसा बना दिया! गोस्वामी जी ने कहा है- नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बाल० 26
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