महाभारत का उपसंहार तथा माहात्मय

महाभारत स्वर्गारोहण पर्व के अंतर्गत पाँचवे अध्याय में वैशम्पायन जी ने महाभारत का उपसंहार तथा महात्म्य का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

महाभारत का उपसंहार तथा महात्म्य

सौति कहते हैं- विप्रवरो! यज्ञकर्म के बीच में जो अवसर प्राप्त होते थे, उन्हीं में यह महाभारत का आख्यान सुनकर राजा जनमेजय को बड़ा आश्चर्य हुआ। तदनन्तर उनके पुरोहितों ने उस यज्ञकर्म को समाप्त कराया। सर्पों को प्राण संकट से छुटकारा दिलाकर आस्तीक मुनि को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। राजा ने यज्ञकर्म में सम्मिलित हुए समस्त ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणा देकर संतुष्ट किया तथा वे ब्राह्मण भी राजा से यथोचित सम्मान पाकर जैसे आये थे उसी तरह अपने घर को लौट गये। उन ब्राह्मणों को विदा करके राजा जनमेजय भी तक्षशिला से फिर हस्तिनापुर को चले आये। इस प्रकार जनमेजय के सर्पयज्ञ में व्यास जी की आज्ञा से मुनिवर वैशम्पायन जी ने जो इतिहास सुनाया था तथा मैंने अपने पिता सूत जी से जिसका ज्ञान प्राप्त किया था, वह सारा-का-सारा मैंने आप लोगों के समक्ष यह वर्णन किया। ब्रह्मन! सत्यवादी मुनि व्यास जी के द्वारा निर्मित यह पुण्यमय इतिहास परम पवित्र एवं बहुत उत्तम है। सर्वज्ञ, विधिविधान के ज्ञाता, धर्मज्ञ, साधु, इन्द्रियातीत ज्ञान से सम्पन्न, शुद्ध, तप के प्रभाव से पवित्र अन्त:करण वाले, ऐश्वर्यसम्पन्न, सांख्‍य एवं योग के विद्वान तथा अनेक शास्त्रों के पारदर्शी मुनिवर व्यास जी ने दिव्यदृष्टि से देखकर महात्मा पाण्डवों तथा अन्य प्रचुर धनसम्पन्न महातेजस्वी राजाओं की कीर्ति का प्रसार करने के लिये इस इतिहास की रचना की है। जो विद्वान प्रत्येक पर्व पर सदा इसे दूसरों को सुनाता है उसके सारे पाप धुल जाते हैं। उसका स्वर्ग पर अधिकार हो जाता है, तथा वह ब्रह्मभाव की प्राप्ति योग्‍य बन जाता है। जो एकाग्रचित्त होकर इस सम्पूर्ण ‘कार्ष्ण वेद’[2] का श्रवण करता है उसके ब्रह्महत्या आदि करोड़ों पापों का नाश हो जाता है। जो श्राद्धकर्म में ब्राह्मणों को निकट से महाभारत का थोड़ा-सा अंश भी सुना देता है, उसका दिया हुआ अन्नपान अक्षय होकर पितरों को प्राप्त होता है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों तथा मन से दिन भर में जो पाप करता है वह सायंकाल की संध्‍या के समय महाभारत का पाठ करने से छूट जाता है। ब्राह्मण रात्रि के समय स्त्रियों के समुदाय से घिरकर जो पाप करता है, वह प्रात:काल की संध्‍या के समय महाभारत का पाठ करने से छूट जाता है।[1]

इस ग्रन्थ में भरतवंशियों के महान जन्मकर्म का वर्णन है, इसलिये इसे महाभारत कहते हैं। महान और भारी होने के कारण भी इसका नाम महाभारत हुआ है। जो महाभारत की इस व्युत्पत्ति को जानता और समझता है वह समस्त पापों से मुक्‍त हो जाता है। अठारह पुराणों के निर्माता और वेदविद्या के महासागर महात्मा व्यास मुनि का यह सिहंनाद सुनो। वे कहते हैं- ‘अठारह पुराण, सम्पूर्ण धर्मशास्त्र और छहों अंगों सहित चारों वेद एक ओर तथा केवल महाभारत दूसरी ओर, यह अकेला ही उन सबके बराबर है। मुनिवर भगवान श्रीकृष्णद्वैपायन ने तीन वर्षों में इस सम्पूर्ण महाभारत को पूर्ण किया था। जो जय नामक इस महाभारत इतिहास को सदा भक्तिपूर्वक सुनता रहता है उसके यहाँ श्री, कीर्ति और विद्या तीनों साथ-साथ रहती हैं भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो कुछ महाभारत में कहा गया है, वही अन्यत्र है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास के द्वारा प्रकट होने के कारण ‘कृष्णादागत: कार्ष्ण:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह उपाख्‍यान ‘कार्ष्णवेद’ के नाम से प्रसिद्ध है। मोक्ष की इच्‍छा रखने वाले ब्राह्मण को, राज्‍य चाहने वाले क्षत्रिय को तथा उत्तम पुत्र की इच्‍छा रखने वाली गर्भिणी स्त्री को भी इस जय नाकम इतिहास का श्रवण करना चाहिये। महाभारत का श्रवण या पाठ करने वाला मनुष्य यदि स्वर्ग की इच्‍छा करे तो उसे स्वर्ग मिलता है और युद्ध में विजय पाना चाहे तो विजय मिलती है। इसी प्रकार गर्भिणी स्त्री को महाभारत के श्रवण से सुयोग्‍य पुत्र या परम सौभाग्‍यशालिनी कन्या की प्राप्ति होती है। नित्यसिद्ध मोक्षस्वरूप भगवान कृष्णद्वैपायन ने धर्म की कामना से इस महाभारत संदर्भ की रचना की है। उन्होंने पहले साठ लाख श्लोकों की महाभारत-संहिता बनायी थी। उसमें तीस लाख श्लोकों की संहिता का देवलोक में प्रचार हुआ। पंद्रह लाख की दूसरी संहिता पितृलोक में प्रचलित हुई।

चौदह लाख श्लोकों की तीसरी संहिता का यक्षलोक में आदर हुआ तथा एक लाख श्लोकों की चौथी संहिता मनुष्यों में प्रचारित हुई। देवताओं को देवर्षि नारद ने, पितरों को असित देवलने, यक्ष और राक्षसों को शुकदेव जी ने और मनुष्यों को वैशम्पायन जी ने ही पहले-पहल महाभारत-संहिता सुनायी है। शौनक जी! जो मनुष्य ब्राह्मणों को आगे करके गम्भीर अर्थ से परिपूर्ण इतिहास का श्रवण करता है वह इस जगत में सारे मनोवाञ्छित भोगों और उत्तम कीर्ति को पाकर सिद्धि प्राप्त कर लेता है। इस विषय में मु्झे तनिक भी संशय नहीं है। जो अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति के साथ महाभारत के एक अंश को भी सुनता या दूसरों को सुनाता है उसे सम्पूर्ण महाभारत के अध्‍ययन का पुण्य प्राप्त होता है और उसी के प्रभाव से उसे उत्तम सिद्धि मिल जाती है। जिन भगवान वेदव्यास ने इस पवित्र संहिता को प्रकट करके अपने पुत्र शुकदेव जी को पढ़ाया था (वे महाभारत के सारभूत उपदेश का इस प्रकार वर्णन करते हैं) मनुष्य इस जगत में हज़ारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रों के संयोग-वियोग का अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे।[3] अज्ञानी पुरुष को प्रतिदिन हर्ष के हज़ारों और भय के सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते हैं; किंतु विद्वान पुरुष के मन पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है; अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्‍यों नहीं करते। कामना से, भय से, लोभ से अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्म का त्याग न करें। धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धन का हेतु अनित्य है।

य‍ह महाभारत का सारभूत उपदेश ‘भारत-सावित्री’ के नाम से प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इसका पाठ करता है वह सम्पूर्ण महाभारत के अध्‍ययन का फल पाकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जैसे ऐश्वर्यशाली समुद्र और हिमालय पर्वत दोनों ही रत्नों की निधि कहे गये हैं, उसी प्रकार महाभारत भी नाना प्रकार के उपदेशमय रत्नों का भण्डार कहलाता है। जो विद्वान श्रीकृष्णद्वैपायन के द्वारा प्रसिद्ध किये गये इस महाभारतरूप पंचम वेद को सुनाता है उसे अर्थ की प्राप्ति होती है। जो एकाग्रचित्त होकर इस भारत-उपाख्‍यान का पाठ करता है वह मोक्षरूप परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस विषय में मुझे संशय नहीं है। जो वेदव्यास जी के मुख से निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय), पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्‍याणमय महाभारत को दूसरों के मुख से सुनता है उसे पुष्करतीर्थ के जल में गोता लगाने की क्‍या आवश्यकता है। सौ गौओं के सींग में सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मण को गौएँ दान देता है और जो महाभारत कथा का प्रतिदिन श्रवणमात्र करता है, इन दोनों में से प्रत्येक को बराबर ही फल मिलता है।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 5 श्लोक 21-44
  2. श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास के द्वारा प्रकट होने के कारण 'कृष्णादागत: कार्ष्ण:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह उपाख्यान 'कार्ष्णवेद' के नाम से प्रसिद्ध है।
  3. महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 5 श्लोक 45-60
  4. महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 5 श्लोक 61-68

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