महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 5 श्लोक 21-44

पंचम (5) अध्‍याय: स्‍वर्गारोहण पर्व

Prev.png

महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व पंचम अध्याय: श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र के सभी पुत्र स्वर्गभोग के पश्चात मूलत: बलोन्मत्त यातुधान (राक्षस) थे। वे समृद्धिशाली महामनस्वी क्षत्रिय होकर युद्ध में शस्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्ग लोक में गये थे। विदुर और राजा युधिष्ठिर ने धर्म के ही स्वरूप में प्रवेश किया। बलराम जी साक्षात भगवान अनन्तदेव के अवतार थे। वे रसातल में अपने स्थान को चले गये। ये वे ही अनन्तदेव हैं, जिन्होंने ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर योगबल से इस पृथ्‍वी को धारण कर रखा है। वे जो नारायण नाम से प्रसिद्ध सनातन देवाधिदेव हैं, उन्हीं के अंश वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण थे, जो अवतार का कार्य पूरा करके पुन: अपने स्वरूप में प्रविष्ट हो गये।

जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की जो सोलह हज़ार स्त्रियाँ थीं, उन्होंने अवसर पाकर सरस्वती नदी में कूदकर अपने प्राण दे दिये। वहाँ देहत्याग करने के पश्चात वे सब-की-सब पुन: स्वर्ग लोक में जा पहुँचीं और अप्सराएँ होकर पुन: भगवान श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित हो गयीं। इस प्रकार उस महाभारत नामक महायुद्ध में जो-जो वीर महारथी घटोत्कच आदि मारे गये थे, वे देवताओं और यक्षों के लोकों में गये। राजन! जो दुर्योधन के सहायक थे, वे सब-के-सब राक्षस बताये गये हैं। उन्हें क्रमश: सभी उत्तम लोकों की प्राप्ति हुई। ये श्रेष्ठ पुरुष क्रमश: देवराज इन्द्र के, बुद्धिमान कुबेर के तथा वरुण देवता के लोकों में गये। महातेजस्वी भरतनन्दन! यह सारा प्रसंग- कौरवों और पांडवों का सम्पूर्ण चरित्र तुम्हें विस्तार के साथ बताया गया।

सौति कहते हैं- विप्रवरो! यज्ञकर्म के बीच में जो अवसर प्राप्त होते थे, उन्हीं में यह महाभारत का आख्यान सुनकर राजा जनमेजय को बड़ा आश्चर्य हुआ। तदनन्तर उनके पुरोहितों ने उस यज्ञकर्म को समाप्त कराया। सर्पों को प्राण संकट से छुटकारा दिलाकर आस्तीक मुनि को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। राजा ने यज्ञकर्म में सम्मिलित हुए समस्त ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणा देकर संतुष्ट किया तथा वे ब्राह्मण भी राजा से यथोचित सम्मान पाकर जैसे आये थे, उसी तरह अपने घर को लौट गये। उन ब्राह्मणों को विदा करके राजा जनमेजय भी तक्षशिला से फिर हस्तिनापुर को चले आये। इस प्रकार जनमेजय के सर्पयज्ञ में व्यास जी की आज्ञा से मुनिवर वैशम्पायन जी ने जो इतिहास सुनाया था तथा मैंने अपने पिता सूत जी से जिसका ज्ञान प्राप्त किया था, वह सारा-का-सारा मैंने आप लोगों के समक्ष यह वर्णन किया।

ब्रह्मन! सत्यवादी मुनि व्यास जी के द्वारा निर्मित यह पुण्यमय इतिहास परम पवित्र एवं बहुत उत्तम है। सर्वज्ञ, विधि-विधान के ज्ञाता, धर्मज्ञ, साधु, इन्द्रियातीत ज्ञान से सम्पन्न, शुद्ध, तप के प्रभाव से पवित्र अन्त:करण वाले, ऐश्वर्यसम्पन्न, सांख्‍य एवं योग के विद्वान तथा अनेक शास्त्रों के पारदर्शी मुनिवर व्यास जी ने दिव्यदृष्टि से देखकर महात्मा पांडवों तथा अन्य प्रचुर धन सम्पन्न महातेजस्वी राजाओं की कीर्ति का प्रसार करने के लिये इस इतिहास की रचना की है। जो विद्वान प्रत्येक पर्व पर सदा इसे दूसरों को सुनाता है, उसके सारे पाप धुल जाते हैं। उसका स्वर्ग पर अधिकार हो जाता है, तथा वह ब्रह्मभाव की प्राप्ति योग्‍य बन जाता है। जो एकाग्रचित्त होकर इस सम्पूर्ण 'कार्ष्ण वेद'[1] का श्रवण करता है, उसके ब्रह्महत्या आदि करोड़ों पापों का नाश हो जाता है। जो श्राद्ध कर्म में ब्राह्मणों को निकट से महाभारत का थोड़ा-सा अंश भी सुना देता है, उसका दिया हुआ अन्नपान अक्षय होकर पितरों को प्राप्त होता है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों तथा मन से दिन भर में जो पाप करता है, वह सायंकाल की संध्‍या के समय महाभारत का पाठ करने से छूट जाता है। ब्राह्मण रात्रि के समय स्त्रियों के समुदाय से घिरकर जो पाप करता है, वह प्रात:काल की संध्‍या के समय महाभारत का पाठ करने से छूट जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के द्वारा प्रकट होने के कारण 'कृष्णादागत: कार्ष्ण:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह उपाख्यान 'कार्ष्ण वेद' के नाम से प्रसिद्ध है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः