ज्ञानेश्वरी पृ. 837

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

समस्त पृथ्वीतल स्वर्ण का बनाया जा सकता है, मेरु-गिरि की भाँति चिन्तामणियों का विशाल पर्वत बनाया जा सकता है, अमृतरस से सातों समुद्र बड़ी सरलता से भरा जा सकता है, छोटे-छोटे नक्षत्रों को चन्द्रमा बनाना भी कठिन नहीं है और न कल्पवृक्षों का बगीचा लगाना ही बहुत दुःसाध्य है; पर गीता का रहस्य सरलता से स्पष्ट नहीं किया जा सकता। फिर भी मेरे-जैसा मूक व्यक्ति गीता का अर्थ इतना अधिक स्पष्ट कर सका है कि जो समस्त लोगों को प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस ग्रन्थरूपी अगाध सिन्धु को पार करके तथा यश की ध्वजा हाथ में लेकर जो मैं सानन्द विचरण कर रहा हूँ, मेरुगिरि की भाँति विशाल दृष्टिगत होने वाला तथा बृहत् कलशवाला गीतार्थरूपी मन्दिर की रचना कर और उसमें श्रीगुरु की प्रतिमा स्थापित करके उनकी जो पूजा-अर्चना कर रहा हूँ, यह सब उन्हीं श्रीगुरुदेव की कृपा का फल है। जो बालक गीता-सरीखी शुद्ध अन्तःकरणवाली माता को भूलकर इधर-उधर भटक रहा था, उसकी जो उस माता के साथ पुनः भेंट हो गयी है, यह भी उन्हीं श्रीगुरु की कृपा का ही फल है। आप सब सज्जनों से मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि हे महाराज, मैंने आचार-व्यवहार को दृष्टि में रख करके ही यह बात कही है। यह स्वयं इस ज्ञानदेव की छोटी-मोटी बातें नहीं हैं।

किंबहुना आप ही लोगों की अनुकम्पा से आज इस ग्रन्थ की समाप्ति का आनन्द मैं मना सका हूँ और इससे मेरा जन्म धारण करना सफल हो गया है। मैंने जो-जो आशाएँ आप लोगों से की थीं, वे समस्त आशाएँ आप लोगों ने ठीक तरह पूर्ण कर दी हैं और इसलिये मैं अत्यन्त ही सुखी हुआ हूँ। हे स्वामी, मुझ सदृश दीन के लिये आपने जो इस ग्रन्थरूपी विलक्षण सृष्टि का सृजन किया है, उसे देखकर मैं दूसरी सृष्टि का सृजन करने वाले विश्वामित्र को भी आज तुच्छ समझ रहा हूँ; क्योंकि त्रिशंकु को लेकर एकमात्र ब्रह्मदेव को नीचा दिखलाने के लिये मरणधर्मा सृष्टि का सृजन करने में कौन-सा बड़ा पुरुषार्थ है!

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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