ज्ञानेश्वरी पृ. 827

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही विजय स्वरूप हैं, अतः वे जिस ओर रहेंगे उसी ओर विजय भी द्रुत गति से जायगी। फिर अर्जुन की ख्याति तो विजय के नाम से ही है तथा श्रीकृष्ण स्वयं ही विजय स्वरूप हैं और इसलिये इसमें जरा-सा भी सन्देह नहीं है कि जिस तरफ श्रीकृष्ण होंगे, उसी तरफ लक्ष्मीसहित विजय भी अवश्य रहेगी। जिन लोगों को ऐसे श्रेष्ठ माता-पिता का आश्रय प्राप्त है, उन लोगों के देश के सामान्य वृक्ष भी क्या प्रतिस्पर्धा में कल्पवृक्ष को नहीं जीत लेंगे? वहाँ के पाषाण भी चिन्तामणि क्यों न हो जायँगे? वहाँ की मिट्टी में भी स्वर्ण गुण क्यों न विलास करेंगे? यदि उनके गाँव की नदियों में अमृत बहे तो हे महाराज, इसमें आश्चर्य ही क्या है? भला आप ही विचार करके देखें। जिनके मुख से उच्चरित उलटे शब्द भी सानन्द वेदों में गिने जाते हैं, भला स्वयं वे मूर्तिमान् सच्चिदानन्द क्यों न होंगे? श्रीकृष्ण जिनके पिता तथा लक्ष्मी जिनकी माता हों उनके अधीन स्वर्ग तथा मोक्ष दोनों ही रहते हैं। इसीलिये मुझे तो सिर्फ इतना ही मालूम है कि जिस तरफ लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण हैं, उस तरफ समस्त सिद्धियाँ मानो स्वतः रखी हुई हैं। इसके अलावा मेरी समझ में और कुछ भी नहीं आता। समुद्र से उत्पन्न होने वाला मेघ स्वयं समुद्र से भी बढ़कर उपयोगी सिद्ध होता है। ठीक यही बात अर्जुन तथा श्रीकृष्ण के विषय में भी है। निःसन्देह लौह को स्वर्ण की दीक्षा प्रदान करने वाला गुरु पारस ही होता है, पर फिर भी जगत् का सारा व्यवहार सिर्फ स्वर्ण से ही चलता है, पारस से नहीं। इन पर कुछ लोग यह कहेंगे कि इन विचारों के कारण गुरुत्व में कमी होती है; पर यह बात कभी भी मन में नहीं लानी चाहिये। जैसे अग्नि दीपक के द्वारा स्वयं अपना ही प्रकाश प्रकट करती है, वैसे ही अर्जुन उस समय श्रीकृष्ण की ही शक्ति से श्रीकृष्ण से भी बढ़कर दिखायी देने लगा था; पर वह श्रीकृष्ण से जितना अधिक दृष्टिगत होता था, उतना ही अधिक इस बात में श्रीकृष्ण का गौरव बढ़ता है तथा प्रशंसा भी होती है। फिर पिता की निरन्तर यही लालसा होती है कि हमारे पुत्र सद्गुणों में हमसे भी बढ़-चढ़कर हों, और शांर्गपाणि भगवान् की वही लालसा सफल हुर्ह थी।

किंबहुना, हे राजन! भगवान् श्रीकृष्ण की अनुकम्पा से अर्जुन जिस पक्ष का सहयोगी बना है उसके बारे में आपको यह सन्देह क्यों होता है कि उसे विजय श्री न प्राप्त होगी। यदि उसको विजय नहीं मिली तो फिर स्वयं विजय ही व्यर्थ हो जायगी। इसीलिये मैं कहता हूँ कि जिस जगह पर लक्ष्मी निवास करती हैं, उसी जगह पर श्रीमान् कृष्णदेव उपस्थित रहते हैं और जिस जगह पर पाण्डुनन्दन अर्जुन रहते हैं, उसी जगह पर सारी विजय तथा सारा अभ्युदय उपस्थित रहेगा।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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