श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे पाण्डव! वह मायाजन्य ज्ञानाभास को त्यागकर और उसका नाश करके वास्तविक ज्ञान के क्षेत्र में आकर स्थित हो जाता है। जैसे एकत्रित किया हुआ जल प्रयोग में लाने से समाप्त हो जाता है, ठीक वैसे ही उसके पुराने कर्म भी शरीर-भोग द्वारा समाप्त हो जाते हैं तथा नये कर्म करने में उसका मन जरा-सा भी सहयोग नहीं करता। हे वीर शिरोमणि! ऐसी अवस्था का ही नाम कर्मसाम्य है। उस पुरुष को सद्गुरु के दर्शन इस अवस्था में बहुत सहज में हो जाते हैं। जैसे रात्रि का चतुर्थ प्रहर व्यतीत हो जाने पर तिमिरारि (अन्धकार को दूर करने वाले) सूर्य के दर्शन आँखों को स्वतः प्राप्त हो जाते हैं अथवा जैसे फलों के घौद (गुच्छे) के आते ही कदली-वृक्ष की बाढ़ स्वतः बन्द हो जाती है; ठीक वैसे ही मुमुक्षु को इस स्थिति में सद्गुरु के दर्शन स्वतः हो जाते हैं। फिर हे वीर शिरोमणि! जैसे पूर्णिमा के आलिंगन से चन्द्रमा की सारी न्यूनता मिट जाती है और वह परिपूर्ण हो जाता है ठीक वैसे ही वह पुरुष भी सद्गुरु की कृपा से परिपूर्ण हो जाता है। फिर उसमें जो अज्ञानांश अवशिष्ट रह जाता है वह भी सद्गुरु की कृपा से समाप्त हो जाता है। फिर जैसे सूर्य का उदय होते ही अन्धकार सहित रात्रि भी पूरी तरह से निर्मूल हो जाती है अथवा जैसे किसी गर्भिणी का वध करने से उसके उदर में स्थित बच्चा भी तत्क्षण मृत्यु का ग्रास बन जाता है, वैसे ही अज्ञान के उदर में विद्यमान कर्म, कर्ता तथा कार्य की त्रिपुटी का भी नाश हो जाता है। इसके बाद अज्ञान नष्ट होते ही उसके साथ ही समस्त कर्मसमूह भी विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार यह संन्यास एकदम मूल तक जा पहुँचता है। इस मूल वाले अज्ञान का विनाश होने से इस नाम-रूप वाली माया की कृतियों का आधार ही विनष्ट हो जाता है और वह पुरुष स्वयं ही ज्ञेयस्वरूप हो जाता है। जो व्यक्ति अपने-आपको किसी दह में डूबने के स्वप्न देखता है, क्या वह कभी जागने के बाद भी स्वयं को डूबने से बचाने तथा उस दह से बाहर निकलने के लिये कोई प्रयत्न करता है? अब उसके उस दुःस्वप्न का अवसान हो जाता है, जिसमें वह यह विचार करता था कि मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता और अब मैं ज्ञान-सम्पादन करूँगा और वह ज्ञाता तथा ज्ञेयवाली भावनाओं से निकलकर सिर्फ ज्ञानस्वरूप हो जाता है। |
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