ज्ञानेश्वरी पृ. 766

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥49॥

जैसे जाल में हवा कैद नहीं हो सकती, ठीक वैसे ही इस देहादि में वह पुरुष भी कैद नहीं हो सकता। जिस समय फलों के पकने का मौसम आता है, उस समय न तो फल ही डाल में लगा रह सकता है और न डाल ही उस फल को पकड़े रह सकती है। ठीक इसी प्रकार इस परिपूर्णावस्था में उस पुरुष का सांसारिक प्रेम एकदम निर्बल हो जाता है। जैसे कोई यह आग्रह नहीं करता कि यह विष से भरा पात्र मेरा ही है और मैं ही इसे पीऊँगा, ठीक वैसे ही पुत्र-कलत्र तथा धन-सम्पत्ति इत्यादि उसके मन से उतर जाते हैं और वह कभी यह नहीं कहता कि यह सब मेरे हैं। आशय यह कि उसके मन में विषयों के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है और उसकी बुद्धि समस्त विषयों से दूर रहने लगती है तथा हृदय के एकान्त प्रदेश में प्रवेश करती है। अब यदि इस प्रकार के पुरुष का मन बाहर भी भ्रमण करता है, तो भी उसकी वैराग्ययुक्त बुद्धि एकनिष्ठ सेविका की भाँति उससे भयभीत होकर सब काम करती है और उसकी आज्ञा के विरुद्ध आचरण कभी नहीं करती। इसके अलावा हे किरीटी! वह मन को ऐक्य भावनारूपी मुट्ठी में कैद करके उसे आत्मानुसन्धान में प्रवृत्त करता है। उस समय सांसारिक और पारलौकिक विषयों से सम्बन्ध रखने वाली उसकी वासना ठीक वैसे ही दबकर मर जाती है; जैसे मिट्टी से दबी हुई अग्नि मर जाती है। इस प्रकार मनोनिग्रह करने के कारण उसकी सम्पूर्ण वासनाएँ स्वतः नष्ट हो जाती हैं। किंबहुना वह पुरुष ऐसे लक्षणों वाली अवस्था को प्राप्त हो जाता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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