श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे जाल में हवा कैद नहीं हो सकती, ठीक वैसे ही इस देहादि में वह पुरुष भी कैद नहीं हो सकता। जिस समय फलों के पकने का मौसम आता है, उस समय न तो फल ही डाल में लगा रह सकता है और न डाल ही उस फल को पकड़े रह सकती है। ठीक इसी प्रकार इस परिपूर्णावस्था में उस पुरुष का सांसारिक प्रेम एकदम निर्बल हो जाता है। जैसे कोई यह आग्रह नहीं करता कि यह विष से भरा पात्र मेरा ही है और मैं ही इसे पीऊँगा, ठीक वैसे ही पुत्र-कलत्र तथा धन-सम्पत्ति इत्यादि उसके मन से उतर जाते हैं और वह कभी यह नहीं कहता कि यह सब मेरे हैं। आशय यह कि उसके मन में विषयों के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है और उसकी बुद्धि समस्त विषयों से दूर रहने लगती है तथा हृदय के एकान्त प्रदेश में प्रवेश करती है। अब यदि इस प्रकार के पुरुष का मन बाहर भी भ्रमण करता है, तो भी उसकी वैराग्ययुक्त बुद्धि एकनिष्ठ सेविका की भाँति उससे भयभीत होकर सब काम करती है और उसकी आज्ञा के विरुद्ध आचरण कभी नहीं करती। इसके अलावा हे किरीटी! वह मन को ऐक्य भावनारूपी मुट्ठी में कैद करके उसे आत्मानुसन्धान में प्रवृत्त करता है। उस समय सांसारिक और पारलौकिक विषयों से सम्बन्ध रखने वाली उसकी वासना ठीक वैसे ही दबकर मर जाती है; जैसे मिट्टी से दबी हुई अग्नि मर जाती है। इस प्रकार मनोनिग्रह करने के कारण उसकी सम्पूर्ण वासनाएँ स्वतः नष्ट हो जाती हैं। किंबहुना वह पुरुष ऐसे लक्षणों वाली अवस्था को प्राप्त हो जाता है। |
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