ज्ञानेश्वरी पृ. 759

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥

जमीन, बीज, हल तथा पूँजी के आधार पर अपार लाभ प्राप्त करना, किंबहुना, कृषि आदि पर जीवन-निर्वाह करना, पशुओं केा पालना अथवा सस्ती खरीदी हुई वस्तुओं को अधिक मूल्य लेकर बेचना इत्यादि कार्य, हे पाण्डव! वैश्यों की वृत्ति के अन्तर्गत हैं। तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि ये समस्त कर्म वैश्य जाति के स्वाभाविक अधिकार क्षेत्र में आते हैं। वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण इन तीनों द्विज वर्णों की सेवा करना शूद्रों का कर्म है। वास्तव में इन द्विज वर्णों की सेवा के अतिरिक्त शूद्रों का अन्य कोई कर्म ही नहीं है। इस प्रकार चारो वर्णों के विहित कर्मों के सम्बन्ध में मैंने तम्हें स्पष्ट रूप से बतला दिया है।[1]


स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: ।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥45॥

हे सुविज्ञ! जैसे श्रवण इत्यादि भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के लिये शब्द इत्यादि भिन्न-भिन्न गुण उपयुक्त होते हैं अथवा हे पाण्डुसुत! मेघों से बरसने वाले जल के लिये जैसे नदी उपयुक्त पात्र है अथवा नदी के लिये जैसे सिन्धु उपयुक्त है, वैसे ही चतुर्वर्णों के लिये ये सब भिन्न-भिन्न कर्म भी उपयुक्त हैं। इसीलिये वर्णाश्रम के अनुसार जो-जो कर्म प्राप्त होते हैं, वे बस गोरे आदमी के गोरेपन की भाँति शोभा देने वाले होते हैं। इसीलिये हे वीरोत्तम! उन स्वभाव सिद्ध विहित कर्मों को शास्त्रानुसार आचरण करने के लिये अपनी बुद्धि अचल रखनी चाहिये। जैसे स्वयं अपने ही रत्न की भी परख रत्नपारखी से करानी पड़ती है, ठीक वैसे ही अपने कर्म भी शास्त्रों के द्वारा निश्चित कराने पड़ते हैं। दृष्टि तो अपनी जगह पर सदा रहती ही है, पर फिर भी दीपक के बिना उसका कोई उपयोग नहीं होता अथवा यदि मार्ग ही न मिले तो पाँव रहकर भी क्या कर सकते हैं? इसीलिये जाति-धर्मानुसार जो हमें उचित अधिकार मिला हुआ हो, वह हमें शास्त्रों को देखकर सुनिश्चित कर लेना चाहिये। अब हे पाण्डव! यदि अपने गृह में अन्धकार में रखा हुआ द्रव्य दीपक हमें दिखला दे तो उसे ग्रहण करने में कौन-सी बाधा है? इस प्रकार जो चीजें स्वभावतः हमारे खाते में है और शास्त्रों ने भी जिनका विधान किया है, जो व्यक्ति अपने उन विहित कर्मों को करता है, जो आलस्य का परित्याग कर और फलेच्छा को मिटाकर तन-मन से उन कर्मों को करने में तल्लीन हो जाता है, जो अपने कर्मों के आचरण के साथ व्यवस्थितरूप से ठीक वैसे ही चलता है, जैसे प्रवाह में मिला हुआ जल बिना इधर-उधर मुड़े ही उस प्रवाह के साथ-ही-साथ बहता चलता है।

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (880-884)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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