ज्ञानेश्वरी पृ. 720

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

परन्तु जो लोग एकमात्र चर्मचक्षुओं से देखते हैं तथा जिनकी दृष्टि देह से आगे जाती ही नहीं, उन्हें यही ज्ञात होता है कि इस प्रकार का मुक्त पुरुष भी कर्मों में जकड़ा हुआ है। जानवरों को डराने तथा भगाने के लिये खेत में तृण आदि का जो पुतला बनाकर खड़ा कर दिया जाता है उसके विषय में गीदड़ क्या यह नहीं समझता कि यह वास्तव में खेत का रखवाला ही है? किसी पागल व्यक्ति को देखने वाले भले ही यह सोचा करें कि वह वस्त्रविहीन है अथवा वस्त्र धारण किये हुए है, पर स्वयं उस पागल को अपनी इन सब चीजों से कुछ भी लेना-देना नहीं होता।

युद्ध में मरे हुए सैनिक के शरीर के घाव दूसरे लोग भले ही गिना करें पर स्वयं उस मृतक को इन सब चीजों का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। जिस समय कोई पतिपरायणा स्त्री सती होने लगती है, उस समय सम्पूर्ण जगत् भले ही सोचा करे कि वह किस प्रकार अपना अन्तिम श्रृंगार करती है, पर स्वयं उस पतिव्रता सती स्त्री को अग्नि की ज्वाला, अपना शरीर अथवा अपने चारों तरफ का जगत् एकदम दृष्टिगत नहीं होता। ठीक इसी प्रकार उस व्यक्ति को आत्मस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है, जिसका द्रष्टत्व दृश्य वस्तु के साथ मिलकर एकाकार हो जाता है तथा उसी में समा जाता है, उसे इसका भान भी नहीं होता कि इन्द्रियाँ किन-किन कर्मों का आचरण कर रही हैं। यदि जल के किसी बड़े प्रवाह में कुछ छोटे-छोटे प्रवाह आकर समा जायँ और उस बड़े प्रवाह के तट पर खड़ा होकर कोई व्यक्ति यह समझ ले कि एक प्रवाह ने दूसरे प्रवाह को ग्रस लिया, तो भी इस क्रिया में जैसे जल के एक प्रवाह को वास्तव में कोई अन्य प्रवाह नहीं ग्रसता, ठीक वैसे ही जो पुरुष पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, उसे मारने के लिये स्वयं अपने से भिन्न कोई अन्य चीज बचती ही नहीं। स्वर्ण निर्मित चण्डिका स्वर्ण निर्मित महिषासुर का स्वर्ण निर्मित शूल से वध करती है और यह दृश्य देखने वाले मन्दिर के निकट खड़े पुजारी को एकदम सत्य जान पड़ता है; पर वास्तव में चण्डिका, महिषासुर और शूल-ये तीनों ही स्वर्णनिर्मित होते हैं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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