श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
यदि गान खत्म भी हो जाय तो भी उसके कारण लोगों को जो तन्द्रा आती है, वह शीघ्र ही दूर नहीं हो जाती अथवा यदि पृथ्वी के ऊपरी सतह से पानी बह जाय तो भी उसकी कुछ नमी कुछ देर तक बनी ही रहती है और जिस समय सूर्य अस्ताचल की ओर चला जाता है उस समय भी सन्ध्या के चबूतरे पर सूर्य-ज्योति की प्रभा कुछ देर तक क्रीड़ा करती ही रहती है। जिस वस्तु को ध्यान में रखकर बाण का सन्धान किया जाता है उस वस्तु का भेदन करने के बाद भी वह बाण उतनी दूर और आगे निकल जाता है, जितना उसमें जोर रहता है। जिस समय चाक पर बर्तन बनाया जाता है और कुम्भकार उसे चाक पर से उतार लेता है, उस समय भी चाक उस गति के कारण, बर्तन न रहने पर भी, कुछ समय तक चक्कर काटता ही रहता है, जो गति उसे पहले बर्तन निर्माण के समय प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार देहाभिमान के मिट जाने पर भी हे धनंजय! देह जिस स्वभाव से उत्पन्न हुआ रहता है, वह स्वभाव देह से स्वतः कर्म कराता ही रहता है। मन में निरुद्देश्य भी स्वप्न दृष्टिगत होता है और बिना वृक्ष लगाये भी जंगलों में स्वतः वृक्ष उत्पन्न होते ही हैं तथा बिना निर्माण किये ही आकाश में मेघों की इमारतें निर्मित होती ही रहती हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मा के द्वारा कोई क्रिया-कलाप न करने पर भी देह के पाँच कारणों से समस्त कर्म स्वतः ही होते रहते हैं। पूर्व कर्मों के संस्कारानुसार पाँच हेतुओं और पाँच कारणों का मेल नाना प्रकार के कर्म करता ही रहता है। फिर चाहे उन कर्मों के द्वारा सारे संसार का संहार हो और चाहे नूतन संसार की सृष्टि हो, पर जैसे सूर्य कभी इस बात का विचार नहीं करता कि कुमुद क्यों सूखता है तथा कमल क्यों प्रस्फुटित होता है अथवा आकाश से बिजली की बरसात होने के कारण चाहे पृथ्वी के टुकड़े-टुकड़े हो जायँ और चाहे शान्तपर्जन्य वृष्टि के कारण तृण इत्यादि से पृथ्वी हरी-भरी हो जाय, पर जैसे आकाश को इन दोनों बातों में से एक का भी ज्ञान नहीं होता, ठीक वैसे ही जो देह में ही विदेही होकर रहता है, वह भी वैसे ही यह नहीं देखता कि देह इत्यादि से होने वाली क्रियाओं के द्वारा सृष्टि का सृजन होता है अथवा सृष्टि का संहार होता है, जैसे नींद से जागा हुआ मनुष्य स्वप्न नहीं देखता। |
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