ज्ञानेश्वरी पृ. 695

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


एतान्यपि तु कर्माणि संगत्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥6॥

यदि महायाग इत्यादि कर्म एकदम अच्छी तरह से पूरे उतर जायँ, तो भी व्यक्ति को अपने चित्त में कर्तत्त्व का अभिमान नहीं आने देना चाहिये। जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से द्रव्य इत्यादि लेकर तथा उसका सहचर बनकर तीर्थाटन के लिये जाता हो, उसके अन्तःकरण में इस प्रकार का अपने महत्त्व का समाधान नहीं होता कि मैं तीर्थाटन कर रहा हूँ। इसी प्रकार जो व्यक्ति किसी सामर्थ्यवान् राजा के आदेश से अकेला ही किसी राजा को गिरफ्त में ले लेता हो तो वह आज्ञाकारी सेवन अपने मन में इस बात का अभिमान नहीं पाल सकता कि मैं विजेता हूँ तथा मैंने इस राजा को जीतकर गिरफ्त में ले लिया है। जो किसी दूसरे के आधार पर तैरता है, उसमें इस प्रकार का अभिमान जरा-सा भी नहीं रह जाता है कि मैं तैरता हूँ। ठीक इसी प्रकार कर्ता को भी अपने मन में कर्तृत्व का अहंभाव नहीं उत्पन्न होने देना चाहिये तथा सारे कर्मों की मोहरें आगे खिसकाते चलना चाहिये।

हे पाण्डव! किये हुए कर्मों का जो फल होता है, उस फल की ओर कभी अपने मनोरथ को प्रवृत्त नहीं होने देना चाहिये। आरम्भ में ही फलाशा त्यागकर कर्मारम्भ करना चाहिये, जैसे कोई धाय दूसरे के बच्चे का निर्विकार भाव से पालन-पोषण करती है अथवा जैसे पीपल-वृक्ष को सींचने वाले उससे फल की कोई आशा नहीं रखते, ठीक वैसे ही फल की बिना कोई आशा रखे समस्त कर्म सम्पादित करते रहना चाहिये। जिस प्रकार गौ को चराने वाला चरवाहा पूरे गाँव की गौओं को इकट्ठा करके चराने हेतु ले जाता है और उन गौओं का दूध पाने की कोई अभिलाषा नहीं करता, ठीक उसी प्रकार का भाव व्यक्ति को कर्म करते समय अपने चित्त में रखना चाहिये तथा कर्मफल की एकदम आशा नहीं करनी चाहिये। जब इस युक्ति से व्यक्ति के द्वारा कर्म सम्पन्न होता है, तब अवश्य ही उसे आत्मस्वरूप की उपलब्धि होती है। इसीलिेय फल का लोभ रखने वाला यह देहाभिमान त्यागकर यथास्थित समस्त कर्मों को करना चाहिये; बस, यही मेरा सबके लिये सर्वोत्तम सन्देश है। जो मोक्ष पाने के लिये व्याकुल रहता हो जिसे जीवन के बन्धन से घृणा जान पड़ती हो, उसके लिये मैं बार-बार यही कहता हूँ कि वह मेरे इस वचन के विरुद्ध कभी कोई आचरण न करे।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (166-177)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः