ज्ञानेश्वरी पृ. 657

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥10॥

वैसे ही तामस प्रकृति का व्यक्ति भी मध्याह्न का पका हुआ अन्न अथवा एक दिन पूर्व का पका हुआ और अवशिष्ट बासी भोजन सानन्द ग्रहण करता है तथा जो अन्न अधपका रहता है अथवा जलकर राख हो जाता है अथवा जिसमें के रस का ठीक तरह परिपाक नहीं हुआ रहता, वही अन्न वह खाता है। जो अन्न अच्छी तरह से पका हुआ होता है, जो अत्यन्त स्वादिष्ट होता है, जिसमें रस भरा होता है, वास्तव में वही अन्न खाने के योग्य होता है। पर तामस व्यक्तियों को ऐसे अन्न का जरा-सा भी अनुभव नहीं होता। कदाचित् इस तरह का उत्तम और स्वादिष्ट अन्न यदि उन्हें मिल भी जाय तो भी वे उस अन्न को ग्रहण नहीं करते और व्याघ्र की भाँति उसे तब तक रख छोड़ते हैं जब तक वह सड़ नही जाती तथा उसमें से दुर्गन्ध नहीं निकलने लगती। क्योंकि जो अन्न बहुत दिनों तक पड़ा रहने के कारण एकदम सड़ जाता है, जो स्वादविहीन हो जाता है, जो शुष्क तथा रसहीन हो जाता है, यहाँ तक कि इसमें कीड़े भी बिलबिलाने लगते हैं, ऐसे अन्न को वह बच्चों की भाँति सानकर कीचड़ की भाँति बना लेता है तथा पत्नी के साथ एक ही थाली में वही अन्न खाता है और तभी वह यह समझता है कि आज दिव्य भोजन हुआ। किन्तु इस प्रकार के अन्न से भी इन पापियों की तृप्ति नहीं होती। इसके बाद वह जो विलक्षण काम करता है, वह भी सुन लो।

शास्त्रनिषिद्ध अखाद्य अपेय वस्तुओं को खाने-पीने की भयंकर वासना वह तामस पुरुष बढ़ाता है। तामस आहार ग्रहण करने वालों की ऐसी ही प्रवृत्ति होती है और हे वीर शिरोमणि! इस प्रकार के आहार का फल पाने के लिये उसे दूसरे क्षण तक भी नहीं ठहरना पड़ता-उसका फल उसे तत्क्षण प्राप्त हो जाता है; क्योंकि उसका मुख जिस समय इस प्रकार के अपवित्र पेय अथवा खाद्य पदार्थ का स्पर्श करता है, उसी समय वह पाप का भागी हो जाता है। तदनन्तर वह जो खाता है, उसे खाने का कोई प्रकार नहीं समझना चाहिये, अपितु उदर-पूर्ति की एक यन्त्रणा ही समझना चाहिये। उसे इस प्रकार का कुछ अनुभव तो होता है कि सिर कटने के समय क्या पीड़ा होती है और अग्नि में प्रवेश करने पर कैसा प्रतीत होता है, पर वह इन सारी यन्त्रणाओं को भी सहन करता हुआ चलता है। इसीलिये यह नहीं कहा जा सकता कि तामस-अन्न का परिणाम तामस वृत्ति से भिन्न होता है। बस यही बातें उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बतलायी थीं। तत्पश्चात् वे फिर कहने लगे कि आहार की तरह यज्ञ भी त्रिविध होते हैं। हे जगत्-प्रसिद्ध यशस्वियों में परमश्रेष्ठ अर्जुन! त्रिविध यज्ञों में जो प्रथम सात्त्विक यज्ञ है, उसके भी लक्षण ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (155-170)

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