ज्ञानेश्वरी पृ. 656

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन: ।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा: ॥9॥

जो चीज अपने कडुआपन के सामने कालकूट विष को भी ठहरने नहीं देता, जो चूने से भी अधिक दाहक तथा विकट अम्ल होता है, जैसे आँटे को गुँथने के लिये उसमें जितना जल डाला जाता है, वैसे ही नमक की मात्रा डाली जाती है, तथा साथ ही जिसमें और भी अनेक क्षार-रस उतनी ही प्रचुर मात्रा में मिले हुए होते हैं, वही सब चीजें रजोगुणी व्यक्तियों को रुचिकर लगती हैं। रजोगुणी लोग कहा करते हैं कि अत्यन्त उष्ण भोजन रुचिकर होता है और इसीलिये वे अग्नि की तरह दाहक उष्ण अन्न का सेवन करते हैं। ऐसे लोग आग्रहपूर्वक इतना अधिक उष्ण अन्न माँगते हैं जिसकी भाप के अग्रभाग में यदि दीपक की बत्ती लगा दी जाय तो वह भी प्रज्वलित हो उठे। पत्थर तोड़ने वाली छेनी (टॉकी) की तीक्ष्णता जगजाहिर है। बस, उसी छेनी के सदृश तीक्ष्ण अन्न वे लोग खाते हैं। ऐसे अन्न ऊपर से देखने में तो कोई घाव नहीं करते, पर अन्दर-अन्दर वे बहुत चुभते हैं।

इसी प्रकार जो अन्न बाह्याभ्यन्तर राख की भाँति शुष्क होता है, उसके सेवन से जिह्वा को जो स्वाद मिलता है, वह उन्हें अत्यन्त रुचिकर लगता है। जिस अन्न के भक्षण करने से दाँत कड़ाकड़ बोलते हैं, उस अन्न को मुख में रखने से उन्हें अत्यन्त संतोष प्राप्त होता है। जो चीज एक तो पहले ही तीव्र स्वाद वाली होती है और तिस पर जिनमें राई पड़ी होती है तथा जिन्हें खाने से नासिका और मुख से निरन्तर पानी गिरने लगता है, सिर्फ यही नहीं, अपितु अपनी तीक्ष्णता के कारण अग्नि को भी पीछे कर देने वाली मसालेदार चीजें तथा अचार इत्यादि ऐसे व्यक्तियों को प्राणों से भी अधिक प्रिय जान पड़ते हैं। इस प्रकार जिह्वा का चटोरापन जिसे पागल बना देता है, वह अन्न के रूप में अपने उदर में धधकती हुई अग्नि ही भरता रहता है। इस प्रकार की चीजें सेवन करने से शरीर में ऐसी आग फूँकती है कि उस व्यक्ति को न तो भूमि पर ही और न तो बिस्तर पर ही चैन मिलता है। यही नहीं, जलपात्र कभी उसके मुख से पृथक् ही नहीं होता। ये सब चीजें आहार नहीं होतीं, अपितु जो शरीर में व्याधिरूपी कालसर्प रहता है, उसे उत्तेजित करने के साधन ही होती हैं। इस प्रकार के अन्न मिलते ही समस्त रोग एक-दूसरे के साथ होड़ करते हुए एकदम से उठ खड़े होते हैं। इस प्रकार ये राजस आहार एकमात्र दुःखरूपी फल ही उत्पन्न करते हैं। हे धनुर्धर! यह हुआ राजस आहार का वर्णन। अब मैं तुम्हें तामस पुरुषों को किस प्रकार का आहार रुचिकर लगता है, उसके सम्बन्ध में बतलाता हूँ। सम्भव है कि उस आहार का विवेचन सुनकर तुम्हें कुछ घृणा हो। सड़ा हुआ, बासी तथा उच्छिष्ट अन्न भक्षण करते समय तमोगुणी व्यक्ति के मन में जरा सी भी घृणा उत्पन्न नहीं होती। जैसे भैंस उच्छिष्ट तथा बासी अन्न बहुत प्रेम से सेवन करती है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (139-154)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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