श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
हे ज्ञानवान् अर्जुन! इस जीवन-संघ को इस प्रकार की निर्दोष श्रद्धा कभी प्राप्त हो नहीं सकती, जो सत्त्व, रज और तम-इन त्रिगुणों से अलिप्त हो। श्रद्धा स्वभावतः तत्त्व ही है, पर वह त्रिगुणों से आवेष्टित रहती है और इसीलिये उसके राजस, तामस और सात्त्विक-ये तीन भेद होते हैं। यों तो जल ही जीवन है, पर वही जल विष के सम्बन्ध से मारक, मिर्च के संग से तीक्ष्ण और इक्षु (गन्ने) के सम्बन्ध से मधुर होता है। इसी प्रकार जो निरन्तर भयंकर तम से युक्त होकर पुनः-पुनः जन्म धारण करता है और मृत्यु को प्राप्त होता है, उसकी श्रद्धा भी तमोरूप ही होती है। फिर जैसे काजल और स्याही में कुछ भेद नहीं किया जा सकता, वैसे ही यह श्रद्धा भी तामसी ही होती है और उसमें तम से भिन्न और कुछ भी नहीं होती। ठीक इसी प्रकार रजोगुणी की श्रद्धा राजसी तथा सत्त्वगुणी की श्रद्धा पूर्णतया सात्त्विक ही होती है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र श्रद्धा से ही ओत-प्रोत है; पर इन त्रिगुणों की सामर्थ्य से श्रद्धा पर जो तीन प्रकार की छाप बैठती है, उन्हें तुम पहचान लो। जैसे पुष्प को देखकर उसके सहयोग से झाड़ (वृक्ष) पहचाना जाता है अथवा सम्भाषण से मनुष्य के अन्तःकरण का परिचय जाना जाता है; जैसे इस जन्म के भोग को देखकर पूर्व जन्मों के कार्य जाने जाते हैं, वैसे ही जिन चिह्नों के द्वारा श्रद्धा के ये तीनों रूप पहचाने जा सकते हैं’ वे चिह्न अब मैं तुम्हें बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (66-75)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |