ज्ञानेश्वरी पृ. 650

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ॥2॥

भगवान् ने कहा-तुम्हारी अभिरुचि हम जानते हैं। तुम्हें शास्त्राभ्यास या शास्त्राध्ययन का बन्धन अत्यन्त ही क्लेशकारक जान पड़ता है। क्यों, यही बात है न? तुम यह सोचते हो कि एकमात्र श्रद्धा के द्वारा ही परमपद प्राप्त कर लिया जाय। पर हे प्रबुद्ध! यह काम इतना आसान नहीं है। हे किरीटी! केवल यह कहना कि-हमारी अपनी श्रद्धा है और उसी पर अवलम्बित रहना उचित नहीं है। यदि ब्राह्मण किसी अन्त्यज से मेलजोल और सम्बन्ध स्थापित करे तो क्या वह भी अन्त्यज नहीं हो जाता? मद्य के पात्र में चाहे गंगाजल ही क्यों न लाया जाय, पर फिर भी उसको ग्रहण नहीं करना चाहिये। तुम स्वयं यह विचार करो कि जो कुछ मैं कहता हूँ, वह उचित है अथवा अनुचित। यह ठीक है कि चन्दन वास्तव में शीतल होता है, पर फिर भी यदि उसका संयोग अग्नि के साथ हो जाय तो उस दशा में यदि उसे हाथ पर रखा जाय तो क्या वह कभी बिना जलाये रह सकता है?

हे किरीटी! यदि अशुद्ध स्वर्ण में जरा-सा स्वर्ण मिला दिया जाय और तब यदि उसे शुद्ध स्वर्ण मानकर ग्रहण किया जाय तो क्या उसमें हानि न होगी? ठीक इसी प्रकार श्रद्धा का सत्त्व भी यथार्थतः शुद्ध ही है, पर वह सत्त्व जिन प्राणियों के हिस्से में आता है, वे प्राणी तो स्वभावतः अनादि माया से उत्पन्न होने वाले त्रिगुणों के ही बने हुए होते हैं। इन त्रिगुणों में से दो गुण तो दबे रहते हैं और एक गुण सशक्त हाता है और तब प्राणियों की वृत्ति उसी गुण के अनुसार चलने लगती है। फिर वृत्तियों के अनुरूप ही मन होता है, मन के अनुसार ही कर्मों का सम्पादन होता है और तब देहावसान के बाद प्राणी अपने कर्मानुसार नूतन देह धारण करता है। जब बीज का क्षय हो जाता है, तब उससे वृक्ष का निर्माण होता है और फिर जब वृक्ष का नाश होता है, तब वह बीज में समाया रहता है। यह क्रम कोटिकल्पपर्यन्त चलता रहता है, पर फिर भी वृक्ष जाति का कभी विनाश नहीं होता। ठीक इसी प्रकार अनगिनत जन्म होते रहते हैं, पर जो त्रिगुणत्व प्राणियों का पीछा करता रहता है, वह कभी उनका पीछा नहीं छोड़ता। इसीलिये तुम यह बात ध्यान में रखो कि जो श्रद्धा प्राणियों के हिस्से में आती है, वह भी उनके गुणों के अनुसार होती है। यदि कभी शुद्ध सत्त्वगुण बढ़ जाय तो उस श्रद्धा से कुछ ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है, पर उस एक सत्त्व के मारक दो अन्य गुण भी तो वहाँ मौजूद रहते हैं। सत्त्व के सहयोग से श्रद्धा मोक्ष-फल की ओर प्रवृत्त होती है; पर ऐसे अवसर पर रजोगुण तथा तमोगुण चुप्पी क्यों साधे रहें? अतः जब सत्त्व की शक्ति समाप्त कर रजोगुण स्वतन्त्र रूप से बढ़ने लगता है, वब वही श्रद्धा कर्मों का बेगार करने वाली क्रीतदासी बन जाती है और फिर जब तमका प्राबल्य होता है, तब उसी श्रद्धा की ऐसी दशा हो जाती है कि वही स्वतः विषयों के भोग में फँस जाती है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (49-65)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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