ज्ञानेश्वरी पृ. 617

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

ठीक इसी प्रकार जो व्यक्ति अज्ञान और भ्रम इत्यादि के कारण अथवा पूर्व जन्मार्जित कर्मों के कारण समस्त प्रकार के निन्दनीय मार्गों में लगे रहते हैं, उन्हें ये अपना शारीरिक शक्ति प्रदान कर उन्हें सालने वाले दुःखों को विस्मृत करा देते हैं। हे पार्थ! दूसरे के दोषों को पहले अपनी दृष्टि से दूर करके तब ये उन्हें अच्छी तरह देखने लगते हैं। जैसे सर्वप्रथम देवता की पूजा-अर्चना करके तब उनका ध्यान किया जाता है अथवा सबसे पहले खेत जोत कर तथा उसमें बीज बोकर तब उनकी रखवाली करने जाते हैं अथवा अतिथि को सर्वप्रथम आदर-सत्कार से सन्तुष्ट करके तब उसका आशीर्वाद लिया जाता है, ठीक वैसे ही सर्वप्रथम अपने गुणों से दूसरों की त्रुटियाँ पूरी करनी चाहिये और तब उसकी ओर सूक्ष्मदृष्टि से देखना चाहिये। सिर्फ यही नहीं, वे कभी किसी के मर्म पर आघात नहीं करते, कभी किसी को कुकर्मों में प्रवृत्त नहीं करते और कभी किसी को दोष नहीं लगाते। बस उनका आचरण अथवा व्यवहार इसी प्रकार का होता है। इसके अलावा उनका व्यवहार इस प्रकार का होता है कि यदि किसी का पतन हो गया हो, तो वे किसी-न-किसी उपाय से उसे सँभाल लेते हैं; परन्तु किसी को मर्माहत करने का विचार उनके मन में कभी आता ही नहीं। आशय यह है कि हे पार्थ, बड़ों के लिये वे कभी दूसरों को तुच्छ समझने अथवा बनाने के लिये तैयार नहीं होते और न उनकी दृष्टि कभी दूसरों के दोष की तलाश ही करती है। हे अर्जुन! इसी प्रकार के व्यवहार का नाम ‘अपैशुन्य’ है; निःसन्देह मोक्षमार्ग पर यह एक विश्रान्ति का प्रमुख स्थान है।

अब मैं तुम्हें दया के सम्बन्ध में बतलाता हूँ, सुनो। जैसे पूर्णिमा की चन्द्रप्रभा सारे जगत् को एक समान शीतलता प्रदान करती है और इस प्रकार का पंक्ति भेद कभी नहीं करती कि यह बड़ा है वह छोटा है, वैसे ही जिसमें दया भरी होती है, वे दुःखीजनों के दुःखों का दयालुतापूर्वक परिहार करते समय कभी यह नहीं सोचते कि यह अधम है और वह उत्तम है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः