ज्ञानेश्वरी पृ. 608

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

शुद्ध ज्ञानाधिपति भगवान् नारायण ने कहा है कि ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है जो प्रपंचों को निगल कर देखने वाले को दृष्ट वस्तु के साथ मिला कर एकाकार कर दे, उसी दृष्ट वस्तु में उसे विलीन कर दे, जीव को आनन्द के साम्राज्य का स्वामी बना दे और इस प्रकार के अन्यान्य चमत्कार का दर्शन करा सके। अत: जो लोग आत्मज्ञान पाने के लिये उत्कण्ठित थे, उनका चित्त तो संतुष्ट हो गया और इसीलिये उन लोगों ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक उस ज्ञान पर से अपना जीवन निछावर कर दिया। मन में जिस विषय के प्रति अनुराग होता है, उस विषय का अन्तःकरण में निरन्तर अधिक-से-अधिक संचार होने लगता है। लोग इसी को प्रेम नाम से सम्बोधित करते हैं। इसीलिये जिज्ञासुजनों में से जिनको ज्ञान के सम्बन्ध का यह प्रेमानुभव नहीं हुआ है, उन लोगों के चित्त में इस चिन्ता का उदय होना स्वाभाविक है कि हमें यह ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होगा और प्राप्त हो जाने पर हम में किस प्रकार स्थायी हो सकेगा। अत: सर्वप्रथम ऐसे प्रश्नों पर विचार करना चाहिये कि वह शुद्ध ज्ञान किस तरह प्राप्त होगा? प्राप्त होने पर वह ज्ञान किस प्रकार बढ़ेगा? अथवा उस ज्ञान की प्राप्ति हमें क्यों नहीं हो रही है? अथवा ऐसी कौन-सी बात है जो ज्ञान के मार्ग में अवरोधक है, जो ज्ञान उत्पन्न नहीं होने देती अथवा प्राप्त ज्ञान को टेढ़े-मेढ़े मार्ग में नियोजित करती है? फिर जो बातें ज्ञान-विरोधक हों, उन्हें तो पृथक् कर दिया जाय और जिन बातों से ज्ञान की वृद्धि हो, उनका मनोयोगपूर्वक विचार किया जाय।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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