ज्ञानेश्वरी पृ. 607

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

कारण यह है कि आपकी जो कीर्ति गीता के नाम से विख्यात है और जो इस विश्वाभास को पूर्णतया विनष्ट कर देती है, आपकी उसी कीर्ति का विवेचन मेरे हिस्से में आया है। क्या उस व्यक्ति को कभी दरिद्र कहा जा सकता है, जिसके घर में महालक्ष्मी स्वयं ही आसन लगाकर बैठ जायँ? अथवा यदि सूर्य स्वयं ही अन्धकार के घर में अतिथि के रूप में आ पहुँचे तो क्या वह अन्धकार ही इस जगत् में प्रकाश नहीं बन जायगा? जिस देव के पासंग में यह अपरम्पार विश्व परमाणु के बराबर भी नहीं टिकता, वही देव यदि भक्ति की तरंगों में आ पड़े तो फिर वे भक्त के लिये भला कौन-सा रूप नहीं ग्रहण करते? ठीक इसी प्रकार गीता का निरूपण करना आकाश-कुसुम की सुगन्ध लेने के सदृश ही असम्भव है; पर आप सामर्थ्य वान् हैं इसलिये आपने मेरी वह इच्छा भी पूरी कर दी है। इसीलिये आपका यह शिष्य ज्ञानदेव भी कहता है कि हे गुरु देव! आपकी कृपा से मैं गीता के गूढ़तर श्लोकार्थ भी बहुत ही स्पष्ट और सरल करके निवेदन करूँगा।

पिछले यानी पंद्रहवें अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को सम्पूर्ण शास्त्रीय सिद्धान्त स्पष्ट करके समझाये थे। जैसे कोई सद्वैद्य किसी रोगग्रस्त व्यक्ति के अंगों में प्रविष्ट रोगों का निदान करता है, वैसे ही वृक्ष के रूपक के द्वारा भगवान् ने आलंकारिक भाषा में उपाधिरूपी समस्त विश्व का निरूपण किया था, साथ ही विश्व का जीवात्मा जो अक्षर पुरुष है, उसके भी लक्षण बतलाये थे। उसी की उपाधि से चैतन्य साकार हुआ है। अन्ततोगत्वा उत्तम पुरुष के विवेचन-प्रसंग में निर्मल आत्मतत्त्व भी दिखलाया गया है। तदनन्तर भगवान् ने आत्म प्राप्ति का अन्तस्थ और प्रबल साधन ज्ञान को ही बतलाया था। अत: अब इस प्रस्तुत अध्याय में बतलाने योग्य कोई विशेष बात अवशिष्ट नहीं रह गयी। अब एक मात्र गुरु-शिष्य का स्नेह-सम्बन्ध ही बाकी रह गया है। इस प्रकरण में ज्ञानिजन तो सारी-की-सारी बातें भली-भाँति समझ चुके हैं, पर उनके सिवा आत्मप्राप्ति की कामना वाले जो मुमुक्षुजन हैं, वही संशय में पड़े हुए हैं। त्रैलोक्य नायक भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो सौभाग्यशाली व्यक्ति ज्ञान के द्वारा मुझ पुरुषोत्तम को प्राप्त करता है, वही सर्वज्ञ है और वही भक्ति के शिखर तक पहुँचा है और उपर्युक्त अध्याय के अन्तिम श्लोक में इसी ज्ञान के महत्त्व का नाना प्रकार से विवेचन किया गया है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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