श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
यदि द्राक्षा-लता की जड़ में दूध डाला जाय तो सामान्यतः यही जान पड़ता है कि वह दूध व्यर्थ हो गया। पर जब उन लताओं में द्राक्षाफल लगते हैं, तब उनकी जड़ों में डाले हुए दूध से द्विगुणित लाभ प्राप्त होता है। बस इसी न्याय से श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन संजय ने अत्यन्त उत्साहपूर्वक नेत्रहीन धृतराष्ट्र को सुनाये थे और आगे चलकर उसी वचनरूपी अमृत की कृपा से वह धृतराष्ट्र देहावसान के समय सुखी हुआ था। भगवान् का वही वचनामृत मैंने देशी-भाषा में अपनी सामर्थ्य के अनुसार यहाँ सब लोगों के समक्ष रखा है। यदि सेवती-पुष्प का रूप देखा जाय तो उसमें कोई ऐसी चीज नहीं दिखायी देती जो अरसिकों के लिये विशेषरूप से मनमोहक हो; पर जो लोग मधुप की भाँति रसज्ञ होते हैं, वे उन पुष्पों का रसास्वादन करना जानते हैं और इच्छानुसार उन्हें लूटते हैं। इसीलिये जो सिद्धान्त प्रमाणसिद्ध हों, उन्हें तो आप लोग स्वीकार कर लें और जिनमें कोई कमी अथवा त्रुटि हो, उन्हें मेरे ही पास रहने दें; क्योंकि ठीक-ठीक समझ न होना मुझ-सदृश बालकों का स्वभाव ही है, बालक चाहे अज्ञानी ही क्यों न हो, पर उसे देखते ही माता-पिता को इतना अधिक हर्ष होता है, जो उनके हृदय में नहीं समा सकता और वे उस बालक का प्यार-दुलार करके अत्यन्त आनन्दित होते हैं। ठीक इसी प्रकार आप सब सन्तजन मेरे लिये पीहर की भाँति हैं। आप लोगों की भेंट होते ही मैं प्रेम की बातें करता हूँ और इसी प्रेम का एक उदाहरण इस ग्रन्थ का व्याख्यान भी है। अब इस ज्ञानदेव की यह विनम्र विनती है कि हे विश्वात्मक मेरे गुरुदेव श्रीनिवृत्तिनाथ जी, आप मेरी यह वाक्-पूजा ग्रहण करें।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (570-598)
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