श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
यह सुनकर श्रीशांर्गधर ने सर्वप्रथम उपाधि के दो प्रकारों का विवेचन करना शुरू किया। इस पर कुछ लोग यह शंका खड़ी कर सकते हैं कि जब अर्जुन का प्रश्न उपाधिरहित वस्तु के सम्बन्ध में था, तब भगवान् ने इस प्रकरण में उपाधियों का बखेड़ा क्यों खड़ा कर दिया? इस शंका का समाधान यह है कि दही में से सारांश निकालना ही नवनीत निकालना कहलाता है और निकृष्ट अंश को जलाना ही स्वर्ण को तपाकर खरा करना है। जब हाथ से सेवार को हटाकर एक ओर रख दी जाती है, तब शुद्ध जल प्राप्त हो सकता है। मेघ जब नहीं रह जाते, तभी केवल आकाश अवशिष्ट रह जाता है। जिस समय धान के ऊपर का छिलका हटा दिया जाय, उस समय अन्न-कण मिलने में क्या विलम्ब हो सकता है? ठीक इसी प्रकार जिस समय विचार-शक्ति के द्वारा उपाधियुक्त वस्तु की उपाधियों का अवसान होता है, उस समय किसी को यह बतलाने की जरूरत नहीं रह जाती कि निरुपाधिक क्या है? जिस समय किसी विवाहिता स्त्री से अनेक नामों का उच्चारण करने के लिए कहा जाता है, उस समय उस प्रकरण में यदि कहीं उसके पति का नामोल्लेख आ जाता है, तो वह उस नाम का उच्चारण नहीं करती, अपितु तत्क्षण समझ जाती है कि मुझे लज्जित करने के लिये ही मेरे पति का नाम मेरे सामने उपस्थित किया गया है। ठीक इसी प्रकार उस निर्गुण, निरुपाधिक और निराकार आत्मा का स्वरूप, वाणी केवल स्तब्ध होकर प्रकट करती है। यही कारण है कि जिन बातों का उल्लेख नहीं किया जा सकता और जब उसी बात के उल्लेख का प्रसंग आया, तब भगवान् ने सर्वप्रथम उपाधियों का विवेचन आरम्भ किया। जैसे प्रतिपदा के चन्द्रमा की सूक्ष्म रेखा दिखलाने के लिये किसी ऊँचे वृक्ष की शाखा का उपयोग किया जाता है, ठीक वैसे ही उस समय उपाधियों की चर्चा का उपयोग होगा।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (421-470)
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