श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
भगवान् ने कहा- “हे किरीटी! भले ही बोलने वाले होठों की संख्या दो हों, पर फिर भी उन दोनों से बात एक ही निकलती है और चलने वाले पैर भले ही दो हों, पर फिर भी उनसे चलना एक ही होता है। ठीक इसी प्रकार तुम्हारा प्रश्न पूछना और मेरा निराकरण करना दोनों एक ही है। तुम और मैं दोनों एक ही अर्थ अथवा आशय पर दृष्टि रखते हैं, अत: इस समय प्रश्नकर्ता और समाधानकर्ता दोनों एक ही हैं।” इतना कहते-कहते श्रीकृष्ण प्रेम से सराबोर हो गये तथा उन्होंने अर्जुन को दुबारा गले लगा लिया। पर फिर वे थोड़ा सशंकित होकर मन-ही-मन कहने लगे कि प्रेम का इतना मोह पालना ठीक नहीं है। यह मोह दूर करना चाहिये। यद्यपि गुड़ में मिठास-ही-मिठास होती है, पर फिर भी उस मिठास को समाप्त होने से बचाने के लिये उसमें जरा-सा लवण (क्षार) मिलाना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार यदि प्रेम का यह मोहपाश इस समय तोड़ा नहीं जायगा तो पास में आये हुए इस संवाद-सुख से भी हाथ धोना पड़ेगा। पहले से ही यह नर है और मैं नारायण हूँ। हम दोनों में कोई भेद नहीं है; पर फिर भी प्रेम का यह वेग इस समय मुझे जहाँ-का-तहाँ रोकना ही चाहिये। यह सोचते ही देव ने तत्क्षण अर्जुन से पूछा- “हे वीरेश! अभी तुम क्या पूछ रहे थे?” यह सुनते ही जो अर्जुन अद्वैत-प्रेम से भगवान् के स्वरूप में घुलने-मिलने का उपक्रम कर रहा था, उसके होश फिर ठिकाने आ गये तथा वह फिर प्रश्नावली की ओर प्रवृत्त हुआ। उसने प्रेमातिरेक से गद्गद होकर पूछा- “हे देव! मैंने यही प्रश्न पूछा था कि आप मुझे अपना उपाधिहीन स्वरूप बतलावें।” |
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