श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
पर जीवात्मा जिस समय एक से अधिक शरीर में प्रवेश करता है, तब उसे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं ही कर्ता तथा भोक्ता हूँ। हे धनंजय! जब कोई व्यक्ति राजकीय ठाट-बाट से किसी जगह में निवास करता है, तब उसे देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि वह बहुत ऐश्वर्यवान् तथा विलासी है। ठीक इसी प्रकार जीवात्मा जिस शरीर का आश्रय स्वीकार करता है, उस समय उस की अहंकर्ता वाली भावना अत्यधिक बलवती हो जाती है तथा विषयों और इन्द्रियों की उछल-कूद आरम्भ हो जाती है अथवा जिस समय जीवात्मा देह का परित्याग करता है, उस समय वह इन्द्रियों का समस्त साज-सामान भी अपने साथ ही ले जाता है। जैसे अतिथि का अनादर होने पर वह उस अनादर करने वाले व्यक्ति के पुण्यरूपी सम्पत्ति को हरण कर ले जाता है, कठपुतलियों का चलना-फिरना इत्यादि उनको चलाने वाली डोरी अपने साथ ले जाती है, अस्ताचल की ओर जाने वाला सूर्य जैसे लोगों के आँखों का प्रकाश भी अपने साथ ले जाता है अथवा पवन जैसे फल और पुष्पों का परिमल उड़ा ले जाता है, ठीक वैसे ही हे धनंजय! देह का परित्याग कर जाने के समय उसका स्वामी जीवात्मा भी मनसहित छहों इन्द्रियों को अपने साथ ही ले जाता है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (361-367)
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