ज्ञानेश्वरी पृ. 582

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग


शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।8।।

पर जीवात्मा जिस समय एक से अधिक शरीर में प्रवेश करता है, तब उसे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं ही कर्ता तथा भोक्ता हूँ। हे धनंजय! जब कोई व्यक्ति राजकीय ठाट-बाट से किसी जगह में निवास करता है, तब उसे देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि वह बहुत ऐश्वर्यवान् तथा विलासी है। ठीक इसी प्रकार जीवात्मा जिस शरीर का आश्रय स्वीकार करता है, उस समय उस की अहंकर्ता वाली भावना अत्यधिक बलवती हो जाती है तथा विषयों और इन्द्रियों की उछल-कूद आरम्भ हो जाती है अथवा जिस समय जीवात्मा देह का परित्याग करता है, उस समय वह इन्द्रियों का समस्त साज-सामान भी अपने साथ ही ले जाता है। जैसे अतिथि का अनादर होने पर वह उस अनादर करने वाले व्यक्ति के पुण्यरूपी सम्पत्ति को हरण कर ले जाता है, कठपुतलियों का चलना-फिरना इत्यादि उनको चलाने वाली डोरी अपने साथ ले जाती है, अस्ताचल की ओर जाने वाला सूर्य जैसे लोगों के आँखों का प्रकाश भी अपने साथ ले जाता है अथवा पवन जैसे फल और पुष्पों का परिमल उड़ा ले जाता है, ठीक वैसे ही हे धनंजय! देह का परित्याग कर जाने के समय उसका स्वामी जीवात्मा भी मनसहित छहों इन्द्रियों को अपने साथ ही ले जाता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (361-367)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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