ज्ञानेश्वरी पृ. 581

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग


ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।7।।

इस प्रकार आत्मज्ञान जब देह से मर्यादित होता है, तब अल्पता के कारण उस देह में मेरा अंश भासमान होता है। वायु प्रवाहित होने के कारण समुद्र तरंगमय दृष्टिगोचर होता है और यही कारण है कि संकीर्ण विचार-धाराओं वाले जीवों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे तरंगें भी समुद्र का अंश ही हैं। इसी प्रकार जड़ को चौतन्य प्रदान करने वाला तथा देहाभिमान उत्पन्न करने वाला मैं भी इस जीवलोक में जीव के रूप में ही भासमान होता हूँ। जीव की मर्यादित बुद्धि को अपने अगल-बगल जो नाना प्रकार के व्यापार होते हुए दृष्टिगत होते हैं; उन्हीं के लिये ‘जीवलोक’ शब्द का व्यवहार होता है। जन्म और मृत्यु को सच्चा मानने को ही मैं जीवलोक अथवा संसार नाम से सम्बोधित करता हूँ। अब मैं तुम्हें यह बतलाता हूँ कि इस जीवलोक में तुम मुझे कैसे देख सकते हो। जल में प्रतिबिम्बित होने वाला चन्द्रमा वास्तव में जल के बाहर का ही होता है अथवा स्फटिकमणि को कुंकुम पर रख दें तो साधारण व्यक्ति को वह लाल रंग का जान पड़ता है, पर यथार्थतः वह लाल रंग का नहीं होता।

ठीक इसी प्रकार बिना अपनी अनादिता तथा क्रियाहीनता में किसी प्रकार की कोई बाधा पहुँचाये ही मैं जो कर्ता तथा भोक्ता के रूप में भासमान होता हूँ, उसे एकमात्र भ्रम ही जानना चाहिये। इन सबका आशय यही है कि शुद्धआत्मब्रह्म ही प्रकृति के साथ मिलकर स्वयं ही इस मायिक जगत् का प्रवाह आरम्भ करता है। फिर वह आत्मा यही समझ कर अपने समस्त क्रिया कलाप करने लगता है कि मन इत्यादि छहों इन्द्रियाँ और कर्ण इत्यादि मायाजनित अवयव सब मेरे ही हैं। जैसे कोई संन्यासी स्वप्नावस्था में स्वयं ही अपना समस्त कुटुम्ब बन जाता है और फिर उस कुटुम्ब की चिन्ता के कारण लोभ-पाश में आबद्ध होकर इतस्ततः भ्रमण करने लगता है तथा नाना प्रकार के सांसारिक व्यवहार करने लगता है। वैसे ही जीवात्मा भी स्वयं को भूल जाता है और तब अपने-आपको प्रकृति अथवा माया के सदृश ही समझकर उसी में अनुरक्त हो जाता है, तथा उसी के हित के समस्त कार्य करने लगता है। तदनन्तर, वह मनरूपी रथ पर विराजमान हो जाता है, कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करता है तथा शब्दों के वन में प्रविष्ट कर चक्कर में पड़ जाता है। वह जीवात्मा उसी प्रकृति की बागडोर पकड़कर त्वचा के मार्ग पर चल पड़ता है और स्पर्श विषय के घनघोर वन में प्रवेश करता है। यदा-कदा वह आँखों में प्रवेश करके रूप-विषय के गिरि-कन्दराओं में भटकता रहता है अथवा हे धनंजय! वह जिह्वा में संचार करके अपने-आपको रसरूपी विषय की गुफा में पहुँचा देता है अर्थात् जिस समय यह देहाभिमानी जीवात्मा घ्राणेन्द्रिय में प्रवेश करता है, उस समय वह गन्धरूपी विषय के दारूणवन में भी चला जाता है। इसी प्रकार यह देहाभिमानी जीव मन को हृदय से लगाकर शब्द इत्यादि विषय-समुदायों का उपभोग करता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (343-360)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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