श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
दीपक के उजाले में जो कुछ दृष्टिगत होता है, चन्द्रमा जिसे प्रकाशित करता है अथवा जो वस्तु सूर्य-प्रभा से चमकती है, उन सब वस्तुओं की दृश्यता उस वस्तु के दृष्टिगत न होने के कारण भासमान होती है। कहने का आशय यह है कि ये समस्त वस्तुएँ तभी तक दिखायी देती हैं, जब तक वह अव्यय वस्तु नहीं दिखायी देती। वह वस्तु स्वयं अदृश्य रहकर सारे विश्व को प्रकाशित करती है। सीपी के भाव का ज्ञान ज्यों-ज्यों मन्द पड़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें होने वाला चाँदी का भास यथार्थ जान पड़ने लगता है अथवा जैसे-जैसे रस्सी के ज्ञान का लोप होता है, वैसे-वैसे उसके विषय में होने वाला सर्प का भ्रम मजबूत होता जाता है। ठीक इसी प्रकार जिस वस्तु का प्रकाश पड़ने के कारण ही चन्द्र और सूर्य इत्यादि प्रचण्ड तेज से प्रकाशित होते हैं, वह वस्तु एकमात्र तेजपुंज ही है। वह सारे जीवों में व्याप्त है और चन्द्र एवं सूर्य को भी प्रकाश प्रदान करती है। चन्द्र-सूर्य अपना जो प्रकाश फैलाते हैं, वह प्रकाश वे इसी ब्रह्म नामक वस्तु से प्राप्त करते हैं और इसीलिये चन्द्र-सूर्य इत्यादि तेजवान् पिण्डों का तेज उस ब्रह्म वस्तु का ही एक अंश है। सूर्य का उदय होने पर जैसे चन्द्रमा के साथ-साथ अन्य समस्त नक्षत्रों का लोप हो जाता है, वैसे ही इस ब्रह्म-वस्तु के प्रकाश से प्रकाशित होते ही उस प्रकाश में सूर्य-चन्द्र के संग समस्त जगत् का लोप हो जाता है अथवा जैसे जाग्रत्-अवस्था में स्वप्न की सारी हलचल समाप्त हो जाती है अथवा जैसे सन्ध्या काल होते ही कहीं मृग जल अवशिष्ट नहीं रह जाता, वैसे ही जिस वस्तु का प्रकाश होते ही और अन्य किसी वस्तु के आभास के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता; वही वस्तु मेरा प्रमुख स्थान है। |
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