श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
जैसे सूर्य पृथ्वी पर वृष्टि करके उसे फिर अपनी रश्मियों के द्वारा अपने ही बिम्ब में ले आता है, आत्मनिर्णय में जिनका विवेक ठीक वैसे ही समरस हो जाता है, जैसे समुद्र में समाकर गंगोदक समरस हो जाता है, जिन्हें सर्वत्र एक मात्र आत्मस्वरूप ही दृष्टिगोचर होता है तथा जिनके लिये आत्मस्वरूप से बाहर जाना वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे आकाश के लिये यहाँ से अन्यत्र कहीं जाना सम्भव नहीं है और यही कारण है कि जिनके साथ विषयों का कभी कोई सम्पर्क ही नहीं हो सकता, जिनके अन्तःकरण में विकारों का वैसे ही कभी उदय नहीं होता, जैसे ज्वालामुखी पर्वत पर बीजांकुर नहीं निकलते, जिनका चित्त काम इत्यादि विकारों से वैसे ही शून्य और निश्चल होता है, जैसे क्षीरसिन्धु उस समय निश्चल हुआ था, जिस समय घर्र-घर्र घूमने वाला मन्दरगिरि उसमें से निकाल लिया गया था, जिनमें काम इत्यादि का कोई दोष वैसे ही नहीं दृष्टिगत नहीं होता, जैसे षोडशकला सम्पन्न चन्द्रमा के किसी अंग में कोई कमी दृष्टिगत नहीं होती, पर इस विशद विवेचन का और कितना विस्तार किया जाय, तात्पर्य यह कि जिन के समक्ष विषयों का ठीक वैसे ही ठिकाना नहीं लगता, जैसे वायु के सम्मुख परमाणु का ठिकाना नहीं लगता और इस प्रकार जो लोग अपने ज्ञानाग्नि से समस्त दोषों तथा मलों को भस्म कर पूर्ण तथा निर्मल हो जाते हैं, वे शुद्ध स्वर्ण में शुद्ध स्वर्ण की ही भाँति पूरी तरह से वहाँ जाकर मिल जाते हैं। यदि तुम यह प्रश्न करो कि मेरी इस उक्ति में ‘वहाँ’ शब्द का क्या आशय है, तो तुम यही जान लो कि वहाँ का मतलब है- उस अव्यय वस्तु में। यह वस्तु ऐसी है जो कभी देखने में नहीं आती और न कभी ज्ञान की ही पकड़ में आती है उसके विषय में कभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह अमुक वस्तु है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (285-307)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |