श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
हे पार्थ! यदि स्वर्ण के ताबीज में स्वर्ण का ही कुन्दा बैठाया जाय तो उसमें किसी प्रकार की भिन्नता नहीं हो सकती। ठीक इसी प्रकार विश्व को अपने से अलग मानना समीचीन नहीं है। तेज का जो अंश तेज से निकलकर फिर तेज में ही समा जाता है, उसी का नाम किरण है। बस, ठीक इन्हीं किरणों की ही भाँति आत्मरूप भी है। अहं मुझमें ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार सूक्ष्मकण पृथ्वी में अथवा हिमकण हिमालय में होते हैं। तरंग चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, पर वह सागर से कभी भिन्न नहीं होती। ठीक इसी प्रकार ‘मैं’ भी ईश्वर से भिन्न नहीं है। इस प्रकार की एकता की भावना से दृष्टि की जो आनन्दपूर्ण वृत्ति होती है, मेरी दृष्टि में उसी का नाम भक्ति है। समस्त ज्ञान का सार और योग का सर्वस्व यही प्रफुल्लित दृष्टि है। जैसे समुद्र और मेघों के मध्य में अखण्ड धाराओं की वृष्टि होने के कारण वे दोनों एक दिखायी देते हैं, वैसे ही यह उल्लासपूर्ण वृत्ति भी होती है। कुएँ के ऊर्ध्व भाग और आकाश में कोई जोड़ नहीं लगा रहता, पर फिर भी वे दोनों एक रहते हैं। ठीक इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति भी बिना किसी जोड़ के उस परम पुरुष के साथ एक रहता है। जैसे प्रतिबिम्ब से लेकर बिम्बपर्यन्त प्रभा फैली रहती है, वैसे ही यह सोऽहंवृत्ति भी जीवात्मा से लेकर परमात्मापर्यन्त पहुँची हुई होती है। जब इस प्रकार की सोऽहंवृत्ति एक बार बन जाती है, तब व्यक्ति उस वृत्ति के साथ स्वतः परमात्म तत्त्व में समा जाता है। |
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