श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
सच्चे प्रेम के कारण जिसे गुरु-गृह की दिशा के साथ ही बातें करना रुचिकर लगता है और जो अपने जीव को गुरु-गृह का हकदार बना रखता है, जिसका शरीर गुरु की आज्ञा के साथ बँधा होने के कारण गुरु से दूर और अपने घर रहने पर भी उसी प्रकार बन्धन में पड़ा रहता है, जिस प्रकार बछड़ा रस्सी से बँधा हुआ गोशालाओं में पड़ा रहता है, पर फिर भी उसी बछड़े की भाँति जो अनवरत यही सोचता रहता है कि यह रस्सी का बन्धन किस प्रकार टूटेगा और किस प्रकार कब मुझे गुरुदेव के दर्शन मिलेंगे, जिसे अपने गुरु के वियोग का एक-एक पल युग से भी बढ़कर जान पड़ता है और ऐसी अवस्था में यदि गुरु-गाँव से कोई व्यक्ति आता है अथवा उसका गुरु किसी को उसके पास भेजता है तो उसे वैसा ही आनन्द मिलता है, जैसा किसी मरणासन्न व्यक्ति को आयुष्य प्राप्त होने पर होता है अथवा सूखे हुए अंकुर को जैसे अमृत-वृष्टि होने के कारण प्राप्त होता है अथवा किसी गड्ढे में रहने वाली मछली को समुद्र में पहुँच जाने पर होता है अथवा किसी अत्यन्त दरिद्र को कहीं कोई गड़ा हुआ धन दिखायी पड़ने पर होता है अथवा अंधे को दृष्टि मिल जाने पर होता है अथवा किसी रंक को इन्द्रासन मिल जाने पर होता है। इसी प्रकार वह गुरुकुल का नाम सुनते ही सुख के रस से इतना सरावोर हो जाता है कि वह आकाश को भी गले लगा लेता है। हे अर्जुन! गुरुकुल के प्रति इस प्रकार का प्रेम जिस व्यक्ति में तुमको दिखायी पड़े, उसके विषय में तुम यही जान लो कि ज्ञान उसकी सेवकाई करता हे। वह अपने प्रेम की शक्ति से अपने अन्तःकरण में अपने गुरुदेव की मूर्ति स्थापित करके ध्यान के द्वारा उसी की उपासना करता है। वह अपने हृदय की निर्मलता के कोट में अपने आराध्य गुरु को बैठा करके स्वयं बहुत ही भक्ति-भाव से उनका सारा परिवार बन जाता है। ज्ञान के चबूतरे पर आत्मानन्द के मन्दिर में अपने गुरु की मूर्ति स्थापित करके वह ध्यानरूपी अमृत की धार पर चढ़ाता है। ब्रह्मबोध का सूर्योदय होते ही अपनी बुद्धिरूपी टोकरी सात्त्विक भावों से भरकर अपने गुरुदेव रूपी शंकर पर उन्हीं भावों की पुष्पांजलि चढ़ाता है; प्रातः मध्याह्न और सायं- इन तीनों कालों में जीवभाव का धूप जलाकर ज्ञान के दीपक से वह नित्य गुरुदेव की आरती करता है। |
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