ज्ञानेश्वरी पृ. 446

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

उसे किसी के विषय में इस प्रकार का आगा-पीछा नहीं होता कि मैं यह बात कहूँ अथवा न कहूँ और वह अपना वास्तविक अनुभव बिल्कुल ठीक-ठीक प्रकट कर देता है। वह अपने मन की कुछ बात छिपाना और कुछ प्रकट करना बिल्कुल नहीं जानता। उसकी दृष्टि में कपट का नामोनिशान भी नहीं रहता और उसकी बातों में न तो कोई दुराव-छिपाव ही होता है और न अस्पष्टता ही होती है। वह किसी के साथ तुच्छता का व्यवहार नहीं करता। उसकी समस्त इन्द्रियाँ कपटरहित, सरल और शुद्ध होती हैं और अहर्निश उसके प्राणों के द्वार खुले रहते हैं। उसका अन्तरंग अमृत की धारा की तरह सरल होता है। कहने का आशय यह है कि जिस व्यक्ति में यह सब लक्षण दृष्टिगत होते हों; हे सुभट! उसके विषय में तुम यह जान लो कि वह आर्जवगुण का पुतला है और उसमें ज्ञान अपना डेरा डाले रहता है।

हे चतुर शिरोमणि अर्जुन! अब मैं गुरु की भक्ति किस प्रकार की जानी चाहिये, इसके सम्बन्ध में बतलाता हूँ; सुनो। यह गुरु-भक्ति मानो सौभाग्य की जननी है, क्योंकि यह शोकग्रस्त जीवों को भी ब्रह्म स्वरूप की उपलब्धि करा देती है। इसी गुरु-भक्ति के बारे में मैं तुम को स्पष्ट रूप् से बतलाना चाहता हूँ; इसलिये तुम इसकी ओर ध्यान दो। जैसे समस्त जल सम्पदा को अपने साथ लेकर नदियाँ समुद्र की ओर जाती हैं अथवा समस्त महासिद्धान्तों के साथ वेद-विद्या ब्रह्मपद में स्थिर होती है अथवा जैसे पति परायणा स्त्री अपने पंचप्राण इकट्ठा करके अपने सब गुणों और अवगुणों के सहित अपने प्रिय को समर्पित करती है वैसे ही जो अपना सर्वस्व गुरुकुल में समर्पित कर देता है और जो स्वयं गुरु की भक्ति का मायका बन जाता है, जो गुरु-गृह का ठीक वैसे ही चिन्तन करता है, जैसे विरहिणी अपने पति का चिन्तन करती रहती है, जिस जगह गुरु निवास करते हैं, उस जगह की ओर से हवा को आते हुए देखकर जो उसका आदर-सम्मान करने के लिये दौड़कर उसके आगे जा खड़ा होता है और दण्डवत् कर उससे प्रार्थना करता है कि मेरे घर पधारिये।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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