श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
इस प्रकार का मनुष्य जिस मार्ग से चलता है, वह मार्ग कृपा से भर जाता है और वह जिस दिशा में देखता है, उस दिशा को कृपा तथा प्रेम से भर देता है। अन्य जीवों के रक्षार्थ वह अपने जीवन को दाँव पर लगा देता है। हे अर्जुन, ऐसे व्यक्ति के ध्यानपूर्वक चलने का वर्णन शब्दों के द्वारा नहीं हो सकता और उसके लिये कोई माप भी नहीं हो सकती। प्रेम से भरकर बिल्ली जिस समय अपने बच्चों को मुँह से पकड़ती है उस समय वह अपने दाँतों की नोंकों को जितना हल्का रखती होगी अथवा प्रेम से सराबोर माता जिस समय अपने बच्चों की प्रतीक्षा करती है, उस समय उसकी दृष्टि में जितनी अधिक कोमलता आ जाती है अथवा कमल के पत्ते हिलने से उसकी हवा नेत्रों को जितनी कोमल लगती है, उतनी ही कोमलता से उसके पैर भी जमीन पर पड़ते हैं। वे पैर जिस जगह पर पड़ते हैं, उस जगह पर रहने वाले जीवों को भी सुख ही होता है। हे पाण्डुसुत, इस प्रकार धीरे-धीरे पैर रखने के समय यदि उसे मार्ग में कहीं कोई जीव (कीट इत्यादि) दृष्टिगत होता है तो वह धीरे से पीछे हट जाता है। वह पैर मानो यह कहता है कि यदि मैं तीव्र गति से चलूँगा तो स्वामी की आत्मसमाधि भंग हो जायगी तथा उनकी स्थिर प्रकृति को आघात लगेगा। यही सोचकर वह पीछे हट जाता है, पर वह किसी जीव पर पैर रखकर नहीं चलता। जहाँ इतनी सावधानी हो कि व्यक्ति तृण को भी जीव समझे और इसीलिये उसे अपने पैरों से न दबने दे, तो फिर वहाँ असावधानीपूर्वक चलने का कोई सवाल ही नहीं उठता। चींटी से जिस प्रकार मेरुगिरि लाँघा नहीं जा सकता अथवा मसक से जैसे तैरकर समुद्र पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार रास्तें में पड़ने वाला जीव उसके पैरों से दब नहीं सकता। जिसके चलने में इतनी कृपा भरी रहती है, उसके वचन में तो तुम्हें मूर्तिमयी और जीवन्त दया ही दृष्टिगत होगी। उसके श्वास भी अत्यन्त मन्द तथा कोमल होते हैं। उसकी मुद्रा मानो प्रेम का पीहर होती है। उसके दाँत माधुर्य के अंकुर ही होते हैं। |
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