श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
परन्तु जल को छानने के चक्कर में ही बहुत-से जीवों की हत्या हो जाती है। कुछ ऐसे लोग भी है जो हिंसा के डर से अन्न का एक दाना भी नहीं ग्रहण करते; मारे भूख के उनके प्राण छटपटाते रहते हैं। यह भी हिंसा ही है। अत: हे पार्थ, कर्मकाण्ड का जो यह सिद्धान्त है कि हिंसा ही अहिंसा है, सो वह सिद्धान्त इसी प्रकार का है। जिस समय हमने पहले-पहल इस अहिंसा का नाम लिया था, उसी समय यह भावना उत्पन्न हुई थी कि इस मत का स्वरूप स्पष्ट कर दें। उस समय ऐसा जान पड़ा कि यह मत भी सहज में ही ध्यान में आ गया है। फिर उसका स्पष्टीकरण क्यों त्याग दिया जाय। यही समझकर हमने ये सब बातें कही हैं। कहने का आशय यह है कि तुम भी उसी दृष्टि से यह बात समझ लो। इसके अलावा हे किरीटी, उपर्युक्त बातों का अहिंसा के साथ मुख्यरूप से सम्बन्ध है। यदि ऐसा न होता तो हम इस टेढ़े मार्ग पर चलकर इस विषय का व्यर्थ इतना विस्तार क्यों करते? और हे धनुर्धर! एक बात यह भी है कि अपने मत को स्पष्ट करने के लिये सम्मुख उपस्थित अन्य मतों का सम्यक् विवेचन करना भी अत्यावश्यक ही होता है। इसलिये अब तक जो निरूपण किया है, वह इसी कारण से किया है। अब मैं स्वयं अपने मत का निरूपण करूँगा। जिस अहिंसा का बाना धारण करने पर भीतरी ज्ञान व्यक्त होता है, उस अहिंसा के स्वरूप को अब बतलाया जायगा। परन्तु किसी में अहिंसा का भाव पूर्णरूप से है अथवा नहीं, इसका पता आचरण से ही चलता है। जैसे कसौटी पर स्वर्ण का कस आता है, वैसे ही जब ज्ञान का मन के साथ मिलाप होता है तब सद्यः मन में अहिंसा प्रकट होता है। हे किरीटी! अब यह सुनों कि अहिंसा का यह प्राकट्य किस प्रकार होता है। लहरों को बिना तोड़े, जल को बिना हिलाये त्वरित गति से पर फिर भी हम एकदम हल्के पैरों से केवल मछली की ओर ध्यान रखकर जैसे बगुला अत्यन्त सावधानीपूर्वक जल में पैर रखता है अथवा मधुप पराग टूटने के डर से कमल पर धीरे से पैर रखता है, वैसे ही अपने मन में यह समझकर धीरे-धीरे पैर रखना कि प्रत्येक परमाणु के साथ बहुत ही छोटे-छोटे जीव लगे रहते हैं। यही अहिंसा का लक्षण है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |