ज्ञानेश्वरी पृ. 431

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

अब धृति का विवेचन सुनो। इन पंच महाभूतों में स्वाभावित वैर बना रहता है। ऐसा नहीं होता कि जल से पृथ्वी का विनाश न हो। तेज जल को सुखा देता है, वायु के साथ तेज का विवाद सदा रहता है और गगन बहुत सहज में वायु को खा जाता है। इसी प्रकार आकाश किसी अन्य तत्त्व के साथ नहीं मिलता, पर फिर भी वह सब में समाया रहता है और सर्वत्र अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखता है। इस प्रकार इन पंच महाभूतों की एक-दूसरे से नहीं पटती; परन्तु फिर भी ये पाँचों इस देह-क्षेत्र में इकट्ठे रहते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी जन्मजात शत्रुता का परित्याग कर देह में न केवल एक जगह रहते हैं, अपितु, अपने-अपने गुणों से एक-दूसरे का पोषण भी करते हैं। जिस धैर्य के कारण उनमें सहसा होने वाला इस प्रकार का मेल होता और बना रहता है, उसी धैर्य को लोग धृति नाम से पुकारते हैं और हे पाण्डव, इन पैंतीसों तत्त्वों का जीव के साथ जो मेल होता है, उसी को इस प्रकरण में संघात कहते हैं।

इस प्रकार मैंने तुमको छत्तीसों तत्त्वों के बारे में स्पष्ट रूप से बतला दिया है। इन सबको मिलाकर जो चीज बनता है, उसी को देह अथवा क्षेत्र कहते हैं। जैसे रथ के अलग-अलग अंगों के योग को ही ‘रथ’ कहते हैं, ऊपर और नीचे के सम्पूर्ण अवयवों के समूह को जैसे ‘देह’ कहते हैं अथवा गज-अश्वों इत्यादि के समूह को जैसे ‘सेना’ कहते हैं अथवा अक्षरों के समूह को जैसे ‘वाक्य’ कहते हैं अथवा जलधरों के समुदाय को जैसे ‘आकाश’ और सम्पूर्ण लोकसमुदाय को ‘जगत्’ कहते हैं, अथवा तेल, बत्ती तथा अग्नि- इन तीनों का एक स्थान पर योग होने पर जैसे ‘दीपक’ होता है, ठीक वैसे ही जिसके कारण ये छत्तीसों तत्त्व एक रूप होते हैं उसी एकरूप को सामुदायिक दृष्टि से ‘क्षेत्र’ नाम से पुकारते हैं। इन्हीं महाभूतों के एकरूप होकर कार्य करने से इसमें पाप और पुण्य की फसल होती है और इसीलिये हम भी कौतुक से इसे ‘क्षेत्र’ ही कहते हैं। कुछ लोगों की दृष्टि में इसी का नाम ‘देह’ भी है। पर इन बातों को खींचकर बढ़ाने की जरूरत नहीं है। वास्तव में यह अनन्त नामों वाला है। परन्तु परब्रह्म के इस पार तथा जड़-जगत् की सीमापर्यन्त उत्पन्न तथा नष्ट होने वाले जितने पदार्थ हैं, वे सब क्षेत्र ही हैं पर उनमें देव, मानव तथा नाग इत्यादि जो योनि-विभाग होते हैं, वे सब गुणों (सत्त्व, रज, तम) और कर्मों की संगति से उत्पन्न होते हैं। हे अर्जुन, इन गुणों के बारे में मैं तुमको आगे चलकर बतलाऊँगा; पर अभी मैं तुमको ज्ञान के विषय में बतलाता हूँ। क्षेत्र और उसके विकारों का सम्पूर्ण वर्णन तो तुम सुन ही चुके हो और अब तुम निर्मल तथा श्रेष्ठ ज्ञान क्या है? इसके विषय में सुनो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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