श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
अब मैं तुम्हें सुख के बारे में बतलाता हूँ। जिसके कारण जीव और सब बातों को भूल जाता है; जो मन, वाणी और काया को शपथ देकर बाँध देता है, जो शरीर की स्मृति के निराधार कर देता है, जो उत्पन्न होते ही प्राणों को पंगु बना देता है, पर जो सात्त्विक भावों का द्विगुणित लाभ कराता है, जो इन्द्रियों की वृत्तियों को थपकी देकर सुला देता है, किंबहुना, जिस अवस्था में जीव को आत्मस्वरूप का मार्ग प्राप्त होता है उस अवस्था में जो प्रतीत होता है, उसी को सुख कहते हैं। हे पार्थ, जिस अवस्था में इस योग का अभाव होता है, उसी को तुम्हें दुःख समझना चाहिये। जब तक संकल्प-विकल्प रहते हैं, तब तक सुख कभी हो ही नहीं सकता; पर ज्यों ही संकल्प-विकल्पों का क्षय होता है, त्यों ही सुख स्वतः प्राप्त होता है। अतः संकल्प-विकल्पों के होने और न होने के दो कारणों से ही दुःख और सुख होता है। हे पाण्डुसुत, इस देह में जो असंग और उदासीन चैतन्य की शक्ति रहती है, उसी को चेतना कहते हैं। जो नख-शिखपर्यन्त सम्पूर्ण शरीर में एक समान जाग्रत् रहती है, जो जाग्रति इत्यादि तीनों अवस्थाओं में अखण्ड रहती है, जो मन और बुद्धि इत्यादि में चेतना का निर्माण करती है, तथा उनके हरा-भरा रखती है, जो प्रकृतिवन माधवी है, जो जड़ और चेतन पदार्थों में भी अंश-भेद से सदा सचंरण करती रहती है, वही चेतना है। इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं है। हे पार्थ, राजा को अपने सैन्य दल के लोगों का अलग-अलग ज्ञान नहीं होता, पर फिर भी उसकी आज्ञा पर सेना शत्रु के चक्र (सेना) पराभाव करती है अथवा जिस समय चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं से परिपूर्ण होता है, उस समय सिन्धु में स्वतः ज्वार आता है अथवा जिस समय चुम्बक लोहे के निकट रहता है, उस समय लोहा स्वतः हिलने लगता है अथवा जिस समय सूर्योदय होता है, उस समय लोग स्वतः जाग उठते हैं अथवा जैसी कच्छपी अपने बच्चों के मुख के साथ मुख नहीं लगाती, सिर्फ उसकी दृष्टि से ही उनका पोषण होता है, वैसे ही चेतना भी इस शरीर में रहकर आत्मा की संगति जड़ को सजीव करती है। हे अर्जुन, यह तो हुई चेतना की बात। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |