श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
रमानाथ श्रीकृष्ण ने कहा- “हे अर्जुन! ऐसे भक्त को मैं मस्तक पर धारण करता हूँ। मोक्ष नामक जो चौथा पुरुषार्थ है, उसे तो वह अपने हाथों में ही लेकर भक्ति के मार्ग में प्रवेश करता है और तब समस्त संसार को वह मोक्ष प्रदान करने लगता है। कैवल्य को तो वह हस्तगत कर लेता है तथा मोक्ष रूपी द्रव्य को वह जैसे चाहता है, वैसे ही खोलता और बाँधता है। पर फिर भी वह जल प्रवाह की ही भाँति अपने लिये तल का स्थान ही स्वीकार करता है और सदा नम्र ही बना रहता है। यही कारण है कि मैं भी ऐसे भक्त को नमस्कार करता हूँ, उसे मुकुट की तरह अपने मस्तक पर धारण करता हूँ तथा उसका चरण-प्रहार भी अपने वक्षःस्थल पर सहन करता हूँ। उसका गुणगान करके मैं अपनी वाणी को अलंकृत करता हूँ और उसके गुण-श्रवणरूपी कुण्डल अपने श्रवणेन्द्रियों में धारण करता हूँ। उसके दर्शन की लालसा होने के कारण ही मैं आँख न होने पर भी आँखों से युक्त हुआ हूँ। मैं अपने हाथ के लीलाकमल से उसकी पूजा करता हूँ, मैं जो अपनी दो भुजाओं के ऊपर और दो भुजाएँ धारण करके आया हूँ, इसका कारण यही है कि मैं ऐसे भक्त को दोनों भुजाओं से अच्छी तरह आलिंगन करना चाहता हूँ। ऐसे भक्त की संगति का सुख पाने के लिए ही मैं विदेह होने पर भी देह धारण करता हूँ। किंबहुना, ऐसा भक्त मुझे कितना प्रिय होता है, यह बात मैं किसी उपमा के द्वारा नहीं बतला सकता। यदि इस प्रकार के भक्त के साथ मेरी मैत्री हो तो इसमें आश्चर्य ही किस बात का? जो लोग ऐसे भक्तों के चरित्र सुनते अथवा उनका गान करते हैं, निःसन्देह वे भी मुझे प्राणों से भी कहीं अधिक प्रिय होते हैं। हे अर्जुन! आज मैंने तुमको भक्तियोग नामक जो यह सर्वश्रेष्ठ योग पूरी तरह से बतलाया है, यह वही योग है जिसके कारण मैं अपने भक्तों को परम प्रिय समझता हूँ और उन्हें अपने अन्तःकरण अथवा सिर पर बैठाता हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (207-229)
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