श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
जो उस निराधार तथा अव्यक्त तत्त्व की बिना भक्ति के ही साधना करना चाहते हैं, जो सारे जीवों का कल्याण करने वाला है, उनके मार्ग में महेन्द्र इत्यादि पदों की वासनाएँ बाधक होती हैं और ऋद्धि-सिद्धि की जोड़ियाँ भी उनके मार्ग में रूकावट डालती हैं। उनके मार्ग में काम-क्रोधरूपी अनेक उपद्रव होते हैं और इन सब बातों के साथ-साथ उन्हें शून्य ब्रह्म के बल पर जूझना पड़ता है। उन्हें प्यास से ही प्यास शान्त करनी पड़ती है और भूख से ही भूख को मिटाना पड़ता है तथा अहर्निश हाथों से हवा करनी पड़ती है। उन्हें दिन में जाग्रत्-अवस्था में ही शयन करना पड़ता है, इन्द्रिय-निग्रह का सुख भोगना पड़ता है और वृक्षों के संग सुहृद्भाव रखना पड़ता है। उन्हें शीत और उष्णता को ही अपने वस्त्र तथा ओढ़ना-बिछौना बनाना पड़ता है और वृष्टि की झाड़ियों में ही निवास करना पड़ता है। किंबहुना, हे पाण्डव! यह योग ठीक वैसा ही है, जैसा किसी स्त्री का उस अवस्था में सती बनकर चिता पर बैठना, जिस अवस्था में उसका कोई पति हो ही नहीं। इसमें न तो किसी स्वामी का कोई कार्य करना पड़ता है और न किसी प्रकार के कुलाचार का ही पालन करना पड़ता है, परन्तु नित्य नयी मृत्यु के साथ युद्ध अवश्य करना पड़ता है। इस प्रकार यह मृत्यु से भी भयंकर विष किस प्रकार पीया जाय? यदि कोई पर्वत को निगलने के लिये अपना मुख फैलावे तो क्या उसका मुख फट नहीं जायगा? इसीलिये हे सुभट! जो लोग इस योग के मार्ग पर चलते हैं, उनके हिस्से में अधिक-से-अधिक दुःख ही रखा रहता है। हे अर्जुन! देखो यदि पोपले मुख वाले को लोहे के चने चबाने पड़ें तो तुम्हीं बतलाओं कि उसका पेट भरेगा अथवा प्राण जायँगे? क्या केवल हाथों के सहारे तैरकर समुद्र पार किया जा सकता है अथवा आकाश में क्या कभी कोई पैदल चल सकता है? युद्धभूमि में जाने के बाद क्या कभी सम्भव है कि शरीर पर लाठी का एक भी वार सहे बिना कोई सूर्यलोक की सीढ़ी पर चढ़ सके? अत: हे पाण्डु कुँवर! जैसे किसी लँगड़े के लिये हवा के साथ प्रतिस्पर्धा करना समीचीन नहीं है, वैसे ही निगुर्ण की उपासना के लिये देहधारी जीवों का प्रयत्न करना समीचीन नहीं है। लेकिन फिर भी जो लोग इतनी धृष्टता करके अव्यक्त को पाने के लिये उद्यत होते हैं, उन्हें अत्यधिक दुःख ही उठाने पड़ते हैं। परन्तु हे पार्थ! जो लोग भक्तिमार्ग का आश्रय ग्रहण करते हैं; उन्हें इन सब दुःखों को सहने का कोई सवाल ही नहीं उठता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (60-75)
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