श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
जो वैराग्यरूपी प्रचण्ड अग्नि में विषय समूह को भस्म कर देते हैं तथा इन्द्रियों की तपी हुई स्थिति में धैर्यपूर्वक नियन्त्रित रखते हैं और फिर इन्द्रियनिग्रह के बल पर जो लोग अपनी इन्द्रियों को मोड़कर अपने हृदयरूपी गुफा में बन्द कर रखते हैं, अपना द्वार भली-भाँति बन्द करके और ठीक तरह आसनमुद्रा का साधन करके मूल बन्ध का किला बाँध लेते हैं, जो आशा से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेते हैं, भय का अन्त कर डालते हैं तथा अज्ञान-निद्रा का अन्धकार हटा करके उसका नाश कर डालते हैं; जो मूल बन्ध की अग्नि की ज्वालाओं से शरीरस्थ सप्त धातुओं को भस्म कर व्याधियों के मस्तक पर षट्-चक्र की तोपें चलाते और स्फुरित होने वाली कुण्डलिनी की तेजस्वी दीपक आधार चक्र पर रखकर उसकी प्रभा से मस्तकपर्यन्त अपना पूरा शरीर देदीप्यमान कर लेते हैं और तब इन्द्रियों के नव द्वारों पर निग्रहरूपी अर्गला लगाकर केवल सुषुम्ना नाड़ी की खिड़की खुली रखते हैं। प्राणवायु की शक्तिरूपी चामुण्डा देवी के लिये संकल्परूपी मेढ़े काटकर मनरूपी महिषासुर के मुण्ड का बलिदान करते हैं, जो चन्द्र (इडा) और सूर्य (पिंगला) नाड़ियों का मिलाप करके नाद-घोष की सहायता से सत्रहवीं पूर्णामृत कला का जल शीघ्रता से अपने अधीन कर लेते हैं और तब मध्यमा यानी सुषुम्ना नाड़ी के विवररूपी रास्ते से चलकर अन्तिम ब्रह्मरन्ध्र तक जा पहुँचते हैं, सिर्फ इतना ही नहीं अपितु जो मकार यानी सुषुम्ना के विवर की सीढ़ियाँ चढ़कर तथा महदाकाश को बगल में दबाकर ब्रह्म में जा मिलते हैं और इस प्रकार समबुद्धि होकर जो लोग तत्क्षण ब्रह्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिये योग का दुर्गम मार्ग अपने अधीन कर लेते हैं और जो अपने मनोभाव के बदले में निर्गुण, निराकार शून्यस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं, हे किरीटी! वही लोग आकर मुझमें मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि इसके अलावा उन्हें योग-बल से कुछ और अधिक प्राप्त होता हो। हाँ, यदि कुछ अधिक प्राप्त होता है, तो वह है सिर्फ कष्ट।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (46-59)
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