ज्ञानेश्वरी पृ. 4

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

इस भारतग्रन्थरूपी कमल में गीता नाम का वह प्रकरण निःसंदेह कमल का पराग है, जिसका संवाद श्रीकृष्णार्जुन-संवाद के रूप से जगत्-विख्यात है अथवा सम्पूर्ण साहित्य को मथ करके व्यास की मति ने यह परम स्वादिष्ट नवनीत निकाला है और वही नवनीत ज्ञानाग्नि पर विवेकपूर्वक तपाने से परिपक्व हो सुगन्धित घृत के स्वरूप को प्राप्त हुआ है। विरक्त जिसकी कामना करते हैं, सन्त जिसका हर समय साक्षात् अनुभव करते हैं और ‘सोऽहम्’ भाव से परे (अर्थात् ब्रह्मवेत्ता) जिसमें रमण करते है, भक्तों को जिसका (गीता का) श्रवण करना चाहिए, जो तीनों लोक में प्रथम नमस्कार करने योग्य है; वो गीता भीष्मपर्व में प्रसंगानुरोध से कही गयी है। जिसे लोग 'भगवद्गीता' कहते हैं, विधाता और महेश जिसकी प्रशंसा करते हैं तथा सनकादिक जिसका प्रेम से सेवन करते हैं, उस कथा के माधुर्य का श्रोताओं को अपना मन कोमल करके उसी प्रकार अनुभव करना चाहिये, जिस प्रकार चकोर के बच्चे एकाग्रचित्त होकर शरत्काल की चन्द्रकलाओं के कोमल अमृतकण चुनते हैं।

इसकी चर्चा शब्दों के बिना करनी चाहिये (मन में ही इसका विचार करना चाहिये) इन्द्रियों को मालूम हुए बिना इसका उपभोग लेना चाहिये और इसमें प्रतिपादक शब्दों के पहले ही, उसमें बताये हुए सिद्धान्त को ग्रहण करना अर्थात् समझना चाहिये। मधुप जैसे कमल-पराग ले जाता है और कमलदलों को इस बात का पता ही नहीं लगने पाता, वैसे ही इस ग्रन्थ को सुनने वाले लोग भी इसके तत्त्व-रस का पान करते हैं। केवल कुमुदिनी ही यह बात अच्छी तरह से जानती है कि किस प्रकार बिना अपनी जगह छोड़े, उगते हुए चन्द्रमा का आलिंगन किया जाता है और किस प्रकार उसके प्रेम का अनुभव किया जाता है। इसीलिये इस प्रकार की गम्भीरवृत्ति से निश्चल अन्तःकरण वाला साधक ही गीता का रहस्य जान सकता है। अहो! गीता सुनने के लिये जो लोग अर्जुन के समान योग्य हों, उन्हीं सन्तों को कृपाकर इस कथा को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिये। सम्भव है, कुछ लोगों को इससे मेरी ढिठाई प्रतीत हो, पर ऐसा नहीं है। हे श्रोताओ! आप लोग तो उदारमना हैं, इसीलिये मैंने आपके श्रीचरणों में विनम्र निवेदन किया है; क्योंकि माता-पिता अपने बच्चे की तुतलाहट से प्रसन्न और सन्तुष्ट ही होते हैं। इसी प्रकार जब आप लोगों ने मुझे स्वीकार किया है और अपनाया है तो फिर मुझे यह प्रार्थना करने की आवश्यकता ही क्या है कि आप लोग मेरी त्रुटियों को क्षमा करें। किन्तु मुझसे एक दूसरा अपराध भी हो गया है; वह यह कि मैं गीता के अर्थ को स्पष्ट करने का साहस कर रहा हूँ। मेरी प्रार्थना है कि आप लोग वह स्पष्टीकरण ध्यानपूर्वक सुनें।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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