ज्ञानेश्वरी पृ. 3

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

कलाओं को इसी से कौशल प्राप्त हुआ है और पुण्य का प्रताप भी इसी से है। इसी के कारण महाराज जनमेजय के पाप भी नष्ट हो गये। यदि इसके विषय में गम्भीरतापूर्वक चिन्तन किया जाय तो निःसन्देह यह मालूम होता है कि इसी ने रंगों को सुरंगता की बढ़ती शक्ति तथ गुणों को सद्गुणता का तेज प्रदान किया है। इसका अभिप्राय यह है कि जैसे सूर्य के तीव्र प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित होते हैं, वैसे ही महर्षि व्यास की प्रखर प्रतिभा से समस्त जगत् देदीप्यमान हुआ है अथवा जैसे उत्तम भूमि में बीज बोने से वे स्वतः चाहे जैसे फलते-फूलते हैं, वैसे ही इस भारतग्रन्थ में समस्त विषय (चारों पुरुषार्थ) सम्यक् रूप से सुशोभित हुए हैं अथवा जैसे नगर में बसने से मनुष्य स्वभावतः चतुर हो जाता है, वैसे ही महर्षि व्यास की वाणी के प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् उज्ज्वल हो गया है।

जिस प्रकार यौवन के आरम्भ में स्त्रियों के शरीर में सौन्दर्य की अपूर्व शोभा प्रकट होती है अथवा जैसे वसन्त-ऋतु आते ही प्राकृतिक छटा सर्वत्र स्वतः छा जाती है, जैसे स्वर्ण का टुकड़ा देखने से उसमें आकार का कोई वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर नहीं होता, पर जब उसके अलंकार बन जाते हैं, तब उसकी वास्तविक शोभा प्रकट होती है। वैसे ही महर्षि व्यास के वचनों से अलंकृत होने के कारण इस कथा को अत्यन्त उत्तमता प्राप्त हुई है और सम्भवतः यही बात जानकर कथाओं ने महाभारत का आश्रय लिया है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण पुराणों ने स्वयं सम्मान प्राप्ति की लालसा से जगत् में अपनी लघुता स्वीकार करके इस भारतग्रन्थ में आख्यानों का रूप ग्रहण किया है। इसीलिये विद्वानों ने यह कहना शुरू किया कि जो चीज महाभारत में नहीं है, वह त्रिलोकी में कहीं नहीं है। सम्पूर्ण त्रैलोक्य व्यास जी का उच्छिष्ट कहा जाता है। यह लोकोक्ति भी है- ‘व्यासोच्छिष्टं जगत् त्रयम्।’ इस प्रकार जो यह रसमयी कथा जगत् में प्रसिद्ध है और ब्रह्मज्ञान को जन्म देने वाली है; परमार्थ की केन्द्र-बिन्दु बन गयी है, वह कथा वैशम्पायन मुनि ने महाराज जनमेजय को सुनायी है। अत: आप सभी सुनिय! यह महाभारत अद्वितीय, उत्तम, अतिपवित्र, निरुपम और श्रेष्ठ मांगल्य का अर्थात् कल्याणकारण स्थान है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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