ज्ञानेश्वरी पृ. 392

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‌ममेदम् ।
व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥49॥

अत: इस विश्वरूप के दर्शन का लाभ प्राप्त करके तुम अपने को श्लाघ्य मानो और इससे रत्तीभर भी भय मत करो। अपने मन में जरासा भी मत सोचो कि इससे बढ़कर और कोई दूसरी चीज भी हो सकती है। यदि अमृत से भरा हुआ समुद्र अचानक मिल जाय तो क्या कभी कोई डूबने के भय से उसका परित्याग कर देगा? अथवा यदि किसी व्यक्ति को स्वर्ण का पहाड़ दिखायी पडे तो क्या वह कभी यह समझकर उसकी अवहेलना करेगा कि यह इतना विशाल पर्वत यहाँ से कैसे ले जाऊँगा? यदि भाग्य से चिन्तामणि का आभूषण मिल जाय तो उसे कोई अंग पर धारण करेगा अथवा बोझ समझकर उसे फेंक देगा? क्या कोई कामधेनु का पालन-पोषण करने का सामर्थ्य मुझमें नही है, यह सोचकर उसका परित्याग कर देगा? यदि चन्द्रमा घर में आवे तो क्या कभी कोई उससे यह कह सकता है कि तुमसे हमारा शरीर जल गया, इसलिये तुम यहाँ से निकल जाओ? अथवा यदि घर में सूर्य प्रवेश करे तो क्या उससे कोई यह कहेगा कि दूर हटो, तुम्हारी परछाई पड़ती है और यदि कोई ऐसा कहे तो क्या उसका इस प्रकार का कथन बुद्धिमत्तापूर्ण समझा जायगा? इसी प्रकार मेरे विश्वरूप का परम तेजस्वी ऐश्वर्य आज आसानी से ही तुम्हारे हाथ लगा है तो तुम इससे व्याकुल क्यों हो रहे हो? पर तुम मूढ़ हो और यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः