ज्ञानेश्वरी पृ. 390

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥47॥

अर्जुन की ये सब बातें सुनकर उन विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण को अत्यन्त विस्मय हुआ। उन्होंने कहा-“मैंने तुम्हारे-जैसा रूखा (अविचारी) व्यक्ति कहीं नहीं देखा। तुम्हें कैसी दिव्य वस्तु की उपलिब्ध हुई है, पर इस लाभ से भी तुम्हें सुख नहीं होता। न जाने तुम अपनी भीरुता से ये सब बोल रहे हो अथवा अपनी हेकड़ी के कारण। जिस समय मैं सहजतः प्रसन्न होता हूँ, उस समय सिर्फ इस जड़-मर्यादा तक ही सब कुछ देता हूँ और जब तक किसी सच्चे भक्त से भेंट न हो, तब तक यह रहस्य भला और किस पर प्रकट किया जा सकता है? आज सिर्फ तुम्हारे लिये मुझे अपना यह गूढ़ रहस्य खोलकर यह विशाल विश्वरूप धारण करना पड़ा है। यह बात मेरी समझ में एकदम नहीं आती कि मैं तुम्हारे चक्कर में इतना क्यों पड़ गया हूँ। पर यह बात एकदम ठीक है कि मैं तुम पर प्रसन्न होकर पागल-सा हो गया हूँ और मैंने अपने आन्तरिक गूढ़ रहस्य की मूर्ति पूरे विश्व के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित कर दी है। मेरा यह स्वरूप अपरम्पार और परात्पर है। इसी स्वरूप से कृष्ण इत्यादि अवतार उत्पन्न हुए हैं। यह स्वरूप ज्ञान तेज का साररूप है। यह विश्वरूप शुद्ध, अनन्त, अटल और सबका आदि बीज है। हे अर्जुन! तुम्हारे अलावा इससे पूर्व अन्य किसी ने यह विश्वरूप न कभी देखा था और न सुना था, क्योंकि यह स्वरूप किसी साधन से साध्य नहीं है।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (609-616)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः