श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
अर्जुन की ये सब बातें सुनकर उन विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण को अत्यन्त विस्मय हुआ। उन्होंने कहा-“मैंने तुम्हारे-जैसा रूखा (अविचारी) व्यक्ति कहीं नहीं देखा। तुम्हें कैसी दिव्य वस्तु की उपलिब्ध हुई है, पर इस लाभ से भी तुम्हें सुख नहीं होता। न जाने तुम अपनी भीरुता से ये सब बोल रहे हो अथवा अपनी हेकड़ी के कारण। जिस समय मैं सहजतः प्रसन्न होता हूँ, उस समय सिर्फ इस जड़-मर्यादा तक ही सब कुछ देता हूँ और जब तक किसी सच्चे भक्त से भेंट न हो, तब तक यह रहस्य भला और किस पर प्रकट किया जा सकता है? आज सिर्फ तुम्हारे लिये मुझे अपना यह गूढ़ रहस्य खोलकर यह विशाल विश्वरूप धारण करना पड़ा है। यह बात मेरी समझ में एकदम नहीं आती कि मैं तुम्हारे चक्कर में इतना क्यों पड़ गया हूँ। पर यह बात एकदम ठीक है कि मैं तुम पर प्रसन्न होकर पागल-सा हो गया हूँ और मैंने अपने आन्तरिक गूढ़ रहस्य की मूर्ति पूरे विश्व के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित कर दी है। मेरा यह स्वरूप अपरम्पार और परात्पर है। इसी स्वरूप से कृष्ण इत्यादि अवतार उत्पन्न हुए हैं। यह स्वरूप ज्ञान तेज का साररूप है। यह विश्वरूप शुद्ध, अनन्त, अटल और सबका आदि बीज है। हे अर्जुन! तुम्हारे अलावा इससे पूर्व अन्य किसी ने यह विश्वरूप न कभी देखा था और न सुना था, क्योंकि यह स्वरूप किसी साधन से साध्य नहीं है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (609-616)
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