श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
कहने का आशय यह है कि मैंने आज तक कभी यह विश्वरूप न देखा था और न सुना था परन्तु वही विश्वरूप आज आपने मेरे आँखों के सामने लाकर खड़ा कर दिया जिससे मेरा मन अत्यधिक आनन्दित हुआ है, परन्तु मेरे मन में इस समय यह आता है कि मैं आपके साथ जी भरकर वार्तालाप करूँ, आपके सन्निकट रहूँ तथा आपको गले लगा लूँ। अब यदि मैं आपके इस विश्वरूप के साथ ये सब बातें करना चाहूँ तो मेरी समझ में यह नही आता कि आपके इन अनगिनत मुखों में से किस मुख के साथ मैं बातें करूँ और किसके गले मिलूँ, क्योंकि आपका यह स्वरूप सीमारहित है। ऐसी स्थिति में भला वायु के साथ कैसे दौड़ा जा सकता है, गगन के गले कैसे मिला जा सकता है और अथाह सागर में कैसे जल-क्रीड़ा की जा सकती है? हे देव! आपके इस स्वरूप से मुझे डर लगता है, इसलिये अब आप मेरी यह एक लालसा और पूरी कर दें कि अपना यह विश्वरूप समेट लें। कौतुक से इस चराचर जगत् का अवलोकन करने के बाद जैसे यह जी चाहता है कि चुपचाप चलकर घर पर शान्तिपूर्वक पड़े रहें, वैसे ही आपका जो सौम्य चतुर्भुज स्वरूप है, वह मुझे विश्राम का स्थान जान पड़ता है। यदि मैंने योगम मार्ग का अभ्यास किया तो भी अन्त में मुझे यही अनुभव करना पड़ेगा और यदि मैं शास्त्रों का अवलोकन करूँगा तो भी अन्ततः यही सिद्धान्त मेरे हाथ लगेगा। यदि मैं यजन करूँ तो उनका भी यही फल होगा। तीर्थ यात्रा भी इसी के निमित्त की जाती है। इसके अतिरिक्त और भी जितने दान-पुण्य इत्यादि मैं करूँगा, उनका भी फल यही आपका चतुर्भुजरूप है। मेरे मन में उस चतुर्भुजरूप को देखने की बहुत बड़ी लालसा है और मैं उसे देखने के लिये बहुत अधीर हो रहा हूँ। बस मेरी यही एक चिन्ता आप शीघ्रातिशीघ्र दूर कर दें। हे सर्वान्तर्यामी! हे समस्त विश्व में व्याप्त रहने वाले! हे देवताओं के भी पूज्य! हे देवाधिदेव! अब आप प्रसन्न होइये।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (579-599)
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