ज्ञानेश्वरी पृ. 369

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरूत्तमांग्ङै: ॥27॥

फिर अर्जुन ने कहा-“देखिये, जैसे गगन में बादल समा जाते हैं; वैसे ही दोनों ओर की सेनाएँ खड्गों और कवचों के सहित आपके मुख में समा गयीं। महाप्रलय के अन्त में जब सृष्टिपर कृतान्त (यम) कोप करता है, तब वह जैसे पातालसमेत इक्कीसों स्वर्गों को लपेटकर निगल लेता है अथवा दैव के विपरीत होनेपर जैसे एक-एक पैसा इकट्ठा करनेवालों की सारी सम्पत्ति जहाँ-की-तहाँ अपने-आप विनष्ट हो जाती हैं, वैसे ही शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित ये दोनों सेनाएँ एक में मिलकर आपके मुख में प्रविष्ट हो गयी हैं; पर दैव की गति ऐसी है कि उनमें से एक भी आपके मुख से छूटकर बाहर नहीं निकल रहा है। जैसे ऊँट के चबाने से अशोक वृक्ष की कोमल पत्तियाँ एकदम बेकार हो जाती हैं; वैसे ही ये लोग भी आपके मुख में समाकर विनष्ट हो रहे हैं। दाँतों के बीच में पड़े हुए मुकुटों के सहित सबके सिर किस प्रकार चूर-चूर होते हुए दिखायी देते हैं, उन मुकुटों के रत्नों में से कुछ रत्न इन्हीं दाँतों में उलझ गये हैं, कुछ चूर-चूर होकर जिह्वा के मूल पर फैल गये हैं और कुछ दाढ़ों के अग्रभाग में लगे हुए हैं। यह सब देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वरूप काल ने लोगों के शरीर बलपूर्वक ग्रस लिये हैं, परन्तु जीव-देह के सिर्फ ये मस्तक जान-बूझकर छोड़ दिये हैं। इसी प्रकार पूरे शरीर में ये मस्तक ही सर्वोत्तम थे और इसीलिये वे महाकाल के मुख में प्रविष्ट होकर भी अन्ततक बच रहे हैं।” इसके उपरान्त अर्जुन फिर कहने लगा-“जिसने जन्म धारण किया है, उसके लिये इसके अलावा अन्य कोई मार्ग ही नहीं है। यह सारा जगत् स्वयं ही इस मुख में समा रहा है। यह बात ठीक है अथवा नहीं? इस सृष्टि में बनी हुई समस्त वस्तुएँ स्वतः इस मुख में प्रविष्ट हो रहीं हैं और यह विश्वरूप महाकाल चुपचाप जहाँ-का-तहाँ पड़ा हुआ है और जिस समय ये सब वस्तुएँ उसके सन्निकट आती हैं, उस समय वह शान्तचित्त से उन सबका भक्षण करता चलता है। ब्रह्मा इत्यादि समस्त देव ऊँचे मुख में समा रहे हैं और ये सामान्य वीर इधरवाले छोटे मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं। दूसरे कुछ जीव ऐसे भी हैं कि वे जहाँ उत्पन्न होते हैं, वहीं निगल लिये जाते हैं; परन्तु यह कहीं नहीं दिखायी पड़ता कि कोई इस मुख की चपेट से बच निकला हो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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