श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
फिर अर्जुन ने कहा-“देखिये, जैसे गगन में बादल समा जाते हैं; वैसे ही दोनों ओर की सेनाएँ खड्गों और कवचों के सहित आपके मुख में समा गयीं। महाप्रलय के अन्त में जब सृष्टिपर कृतान्त (यम) कोप करता है, तब वह जैसे पातालसमेत इक्कीसों स्वर्गों को लपेटकर निगल लेता है अथवा दैव के विपरीत होनेपर जैसे एक-एक पैसा इकट्ठा करनेवालों की सारी सम्पत्ति जहाँ-की-तहाँ अपने-आप विनष्ट हो जाती हैं, वैसे ही शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित ये दोनों सेनाएँ एक में मिलकर आपके मुख में प्रविष्ट हो गयी हैं; पर दैव की गति ऐसी है कि उनमें से एक भी आपके मुख से छूटकर बाहर नहीं निकल रहा है। जैसे ऊँट के चबाने से अशोक वृक्ष की कोमल पत्तियाँ एकदम बेकार हो जाती हैं; वैसे ही ये लोग भी आपके मुख में समाकर विनष्ट हो रहे हैं। दाँतों के बीच में पड़े हुए मुकुटों के सहित सबके सिर किस प्रकार चूर-चूर होते हुए दिखायी देते हैं, उन मुकुटों के रत्नों में से कुछ रत्न इन्हीं दाँतों में उलझ गये हैं, कुछ चूर-चूर होकर जिह्वा के मूल पर फैल गये हैं और कुछ दाढ़ों के अग्रभाग में लगे हुए हैं। यह सब देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वरूप काल ने लोगों के शरीर बलपूर्वक ग्रस लिये हैं, परन्तु जीव-देह के सिर्फ ये मस्तक जान-बूझकर छोड़ दिये हैं। इसी प्रकार पूरे शरीर में ये मस्तक ही सर्वोत्तम थे और इसीलिये वे महाकाल के मुख में प्रविष्ट होकर भी अन्ततक बच रहे हैं।” इसके उपरान्त अर्जुन फिर कहने लगा-“जिसने जन्म धारण किया है, उसके लिये इसके अलावा अन्य कोई मार्ग ही नहीं है। यह सारा जगत् स्वयं ही इस मुख में समा रहा है। यह बात ठीक है अथवा नहीं? इस सृष्टि में बनी हुई समस्त वस्तुएँ स्वतः इस मुख में प्रविष्ट हो रहीं हैं और यह विश्वरूप महाकाल चुपचाप जहाँ-का-तहाँ पड़ा हुआ है और जिस समय ये सब वस्तुएँ उसके सन्निकट आती हैं, उस समय वह शान्तचित्त से उन सबका भक्षण करता चलता है। ब्रह्मा इत्यादि समस्त देव ऊँचे मुख में समा रहे हैं और ये सामान्य वीर इधरवाले छोटे मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं। दूसरे कुछ जीव ऐसे भी हैं कि वे जहाँ उत्पन्न होते हैं, वहीं निगल लिये जाते हैं; परन्तु यह कहीं नहीं दिखायी पड़ता कि कोई इस मुख की चपेट से बच निकला हो। |
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