श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
पूर्वकाल में जिस समय देवताओं को अमृत मिला हुआ था, उस समय देवों को उससे भी सन्तोष नहीं हुआ था। इसीलिये जैसे कालकूट उत्पन्न हुआ था-पर एक हिसाब से उस कालकूट को भी निम्न श्रेणी का ही जानना चाहिये, कारण कि उसका प्रतीकार हो सकता था और उस समय भगवान् शिव ने सब लोगों को उस संकट से मुक्त भी किया था-परन्तु अब इस प्रज्वलित वायुरूपी विश्वरूप को कौन रोक सकता है, यह विष से भरा हुआ आकाश अब कौन निगल सकता है? महाकाल के साथ खेलने की सामर्थ्य भला किसमें हो सकती है?” इस प्रकार दुःख से व्याकुल होकर अर्जुन अपने हृदय में शोक कर रहा था, पर श्रीकृष्ण का अभिप्राय उसकी समझ में नहीं आया। जो अर्जुन यह कह रहा था कि मैं मारने वाला हूँ तथा ये सब कौरव मरने वाले हैं और इस प्रकार वह जो मोहपाश में जकड़ा हुआ था, उसक वह मोह मिटाने के लिये ही उन श्रीकृष्ण ने अपना यह स्वरूप उसको विशेषरूप से दिखाया था। श्रीकृष्ण उस समय विश्वरूप के व्याज से अर्जुन को यह बताना चाह रहे थे कि कोई किसी को मारता नहीं। मैं ही सबका संहार करता हूँ; परन्तु अर्जुन को फिर भी इस बात का ज्ञान नहीं होता था कि मेरा यह दुःख अकारण है। इसीलिये उसका वह अहैतुक और व्यर्थ शोक भय को निरन्तर बढ़ाने लगा।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (392-409)
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