ज्ञानेश्वरी पृ. 368

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग

पूर्वकाल में जिस समय देवताओं को अमृत मिला हुआ था, उस समय देवों को उससे भी सन्तोष नहीं हुआ था। इसीलिये जैसे कालकूट उत्पन्न हुआ था-पर एक हिसाब से उस कालकूट को भी निम्न श्रेणी का ही जानना चाहिये, कारण कि उसका प्रतीकार हो सकता था और उस समय भगवान् शिव ने सब लोगों को उस संकट से मुक्त भी किया था-परन्तु अब इस प्रज्वलित वायुरूपी विश्वरूप को कौन रोक सकता है, यह विष से भरा हुआ आकाश अब कौन निगल सकता है? महाकाल के साथ खेलने की सामर्थ्य भला किसमें हो सकती है?” इस प्रकार दुःख से व्याकुल होकर अर्जुन अपने हृदय में शोक कर रहा था, पर श्रीकृष्ण का अभिप्राय उसकी समझ में नहीं आया। जो अर्जुन यह कह रहा था कि मैं मारने वाला हूँ तथा ये सब कौरव मरने वाले हैं और इस प्रकार वह जो मोहपाश में जकड़ा हुआ था, उसक वह मोह मिटाने के लिये ही उन श्रीकृष्ण ने अपना यह स्वरूप उसको विशेषरूप से दिखाया था। श्रीकृष्ण उस समय विश्वरूप के व्याज से अर्जुन को यह बताना चाह रहे थे कि कोई किसी को मारता नहीं। मैं ही सबका संहार करता हूँ; परन्तु अर्जुन को फिर भी इस बात का ज्ञान नहीं होता था कि मेरा यह दुःख अकारण है। इसीलिये उसका वह अहैतुक और व्यर्थ शोक भय को निरन्तर बढ़ाने लगा।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (392-409)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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