ज्ञानेश्वरी पृ. 366

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग

हे विश्वमूर्ति! आज मैं इतना भीरु बन गया हूँ और वही मैं पहले ऐसा था कि जब अमरावती पर शत्रु का आक्रमण हुआ था, तब मैंने अकेले ही उस आक्रमण का सामना किया था और प्रत्यक्ष काल का मुख देखने पर भी मुझे जरा-सा भी भय नहीं हुआ था, परन्तु हे प्रभु! आज की यह घटना कुछ ऐसी-वैसी नहीं है। इस समय तो आप काल को भी मात करके सारे संसार के साथ मुझे भी ग्रसना चाहते हैं। यदि सचमुच में देखा जाय तो यह कोई प्रलय का काल नहीं था; पर न जाने क्यों बीच में ही आपके इस कालस्वरूप के दर्शन हो गये और तत्क्षण ही यह बेचारा त्रिभुवन अल्पायु हो गया। अहो, कैसा विपरीत भाग्य है। मैंने तो शान्ति पाने की चेष्टा की थी; पर बीच में यह विघ्न आ उपस्थित हुआ। हाय, हाय! अब तो यह सारा विश्व ही डूब गया। हे स्वामी! क्या आप सचमुच इस विश्व को निगल जाना चाहते हैं? क्या मुझे स्पष्ट रूप से यह दिखायी नहीं पड़ रहा है कि आप अपने ये अनगिनत मुख फैलाकर चतुर्दिक् इन सेनाओं को निगल रहे हैं।[1]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (375-391)

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