श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
जैसे मिट्टी का बहुत बड़ा बर्तन फूट जाय वैसे ही आपके ये विशाल और भयंकर मुख मुझे अपने समक्ष विस्तृत दृष्टिगोचर होते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनमें दाँतों तथा दाढ़ों का अद्भुत जमाव होने के कारण और होंठों की ओट में उनके न समा सकने के कारण दोनों होंठों पर मानो नाना प्रकार के प्रलयकाल के शस्त्रों की बाढ़-सी लगी है। जैसे तक्षक को नूतन विष मिल जाय अथवा कालरात्रि में भूत संचरण करें अथवा अग्न्यास्त्र पर विद्युत् का पुट चढ़े, ठीक वैसे ही आपके प्रचण्ड मुख में भरा हुआ आवेश बाहर निकल रहा है और ऐसा ज्ञात होता है कि इस आवेश के रूप में हम लोगों पर मृत्यु की लहर ही आ रही है। जब सारे संसार का नाश करने वाली प्रचण्ड वायु और कल्पान्त समय की प्रलयाग्नि का मिलन होता है, तब भला ऐसी कौन-सी चीज हो सकती है जो उन दोनों के मिलन से भस्म न हो जाय? इसी प्रकार आपके ये प्रचण्ड मुख देखकर भला मेरा धैर्य मुझे त्यागकर क्यों न चला जाय? इस समय मैं अपनी सुध-बुध खो दिया हूँ। यहाँ तक कि मुझे दिशाएँ भी नहीं दिखायी पड़तीं और स्वयं अपना भी भान नहीं होता। मैंने अभी आपका थोड़ा-सा ही विश्वरूप देखा है और इसका दर्शन करते ही मेरे समस्त सुखों का अवसान हो गया। बस, हे देव! अब आप अपने इस अपार और विस्तृत विश्वरूप को समेट लीजिये; हे स्वामी! इसे समेट लीजिये। यद्यपि मुझे यह पता होता कि आप ऐसा करोगे (अर्थात् भयंकर विश्वरूप दिखाओगे) तो मैं ‘यह विश्वरूप मुझे दिखाओ’ ऐसा क्यों कहता? तो मैं यही कहूँगा कि अब आप एक बार अपने इस रूप की संहारक कृति से मेरे जीवन की रक्षा करें। हे अनन्त! यदि आप मेरे स्वामी हों तो आप मेरे प्राणों की रक्षा के लिये अपनी ढाल आगे बढ़ावें और इस महामारी का प्रलयंकर विस्तार समेटकर फिर इसे पूर्ववत् अपने स्वरूप में गुप्त रखें। हे देवों के देव! इस विश्व को बसाने वाले एकमात्र चैतन्य आप ही हैं, परन्तु यह बात भूलकर आज आपने उल्टे सर्वनाश का ही कार्य शुरू कर दिया है। यह क्या बात है? हे देवाधिदेव! अब आप प्रसन्न होइये। आप अपनी इस माया का अवसान करें तथा मुझे भयमुक्त करें। मैं इतनी देर से बारम्बार आपसे बहुत ही दीनतापूर्वक प्रार्थना कर रहा हूँ। |
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