ज्ञानेश्वरी पृ. 352

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

इस प्रकार एक-एक श्रृंगार की शोभा देखता-देखता अर्जुन इतना व्याकुल हो गया कि उसे इस बात का पता नहीं चला कि प्रभु खड़े हैं अथवा बैठे हैं अथवा सोये हैं। बाह्य चक्षु खोलकर देखने पर सब कुछ विश्वरूप ही दृष्टिगत होता था और जिस समय वह अपनी आँखें बन्द कर लेता था, उस समय अन्दर भी उसे सब कुछ देवमय ही दिखायी देता था। सामने असंख्य मुख दिखायी देते थे, इसलिये जब अर्जुन भयभीत होकर पीछे की ओर देखने लगा तब उसने देखा कि उधर भी प्रभु के मुख, हाथ और चरण इत्यादि सब कुछ वैसे ही हैं। यदि ये सब वस्तुएँ आँखें खोलकर देखने पर दिखायी पड़ती हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या है!

परन्तु श्रवणीय बात यह है कि न देखने की स्थिति में भी, आँखें बन्द किये रहने पर भी, प्रभु के वही दर्शन होते थे। प्रभु-कृपा की भी यह कैसी विलक्षण करनी है! पार्थ का देखना और न देखना-ये दोनों ही क्रियाएँ नारायण ने पूर्णतया व्याप्त कर रखी थीं और यही कारण है कि उन दोनों क्रियाओं में उसे नारायण के ही दर्शन होते थे। जिस समय अर्जुन चमत्कार की एक बाढ़ में से निकलकर शीघ्रता से किनारे की ओर आ रहा था, उस समय इसी बीच में वह चमत्कार के एक दूसरे महासिन्धु में जा पड़ा। इस प्रकार उस अनन्त स्वरूप वाले नारायण ने अपने दर्शन की अलौकिक शक्ति से अर्जुन को एकदम व्याकुल कर दिया। प्रभु तो स्वभावतः विश्वतोमुख (सर्वव्यापी) हैं और तिस पर अर्जुन ने यह विनम्र प्रार्थना की थी कि आप मुझे अपना विश्वरूप दिखलावें; इसलिये प्रभु स्वयं ही सम्पूर्ण विश्व का रूप धारण करके उसके समक्ष प्रकट हुए थे और फिर नारायण ने अर्जुन को कोई ऐसी स्थूल दृष्टि तो प्रदान ही नहीं की थी कि यदि दीपक या सूर्य का प्रकाश हो, तभी उसे दिखायी पड़े और यदि दीपक या सूर्य का सहयोग न मिला हो तो उस दृष्टि से दिखायी ही न पड़े। अत: हे राजन्! आप यह बात ध्यान में अवश्य रखें कि अर्जुन चाहे अपने नेत्र बन्द रखता अथवा खुला रखता, दोनों ही स्थितियों में अर्जुन के लिये देखने के अलावा और कोई चारा नहीं था।” यही बात हस्तिनापुर में संजय राजा धृतराष्ट्र से निवेदन कर रहे हैं। संजय ने निवेदन करते हुए धृतराष्ट्र से पुनः कहा-“हे महाराज! और नहीं तो, कम-से-कम इतना तो आप अवश्य ध्यान में रखें कि अर्जुन ने श्रीकृष्ण का विश्वरूप देखा और वह रूप भाँति-भाँति के अलंकारों से भरा हुआ होने पर भी विश्वतोमुख अर्थात् सर्वव्यापी था।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (218-236)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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