श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
अर्जुन ने मानो डरकर ही इन शस्त्रयुक्त हाथों की ओर से अपनी आँखे फेर ली और तब वह भगवान् का कण्ठ और मस्तक देखने लगा। जिनसे पारिजात की सृष्टि हुई थी, जो महासिद्धियों के मूल पीठ हैं और जिनमें श्रम प्राप्त लक्ष्मी विश्राम लेती हैं, वे अत्यन्त निर्मल पुष्प उस कण्ठ और मस्तक पर धारण किये हुए दिखायी दिये। मस्तक पर फूलों के गुच्छे, अलग-अलग अवयवों पर फूलों के जाल, गजरे और झालरें इत्यादि तथा कण्ठ में अलौकिक पुष्पमालाएँ लहरा रही थीं। प्रभु के नितम्ब पर पीताम्बर इस प्रकार शोभा दे रहा था कि मानो स्वर्ग ने सूर्य के तेज का परिधान धारण किया हो अथवा मेरुगिरि स्वर्ण से आच्छादित कर दिया गया हो। जैसे कपूरवर्ण शंकर को कपूर का उबटन लगाया गया हो अथवा कैलाश के धवलगिरि पर पारे का लेप चढ़ाया गया हो अथवा क्षीरसमुद्र को दुग्ध के सदृश धवल वस्त्र पहनाया गया हो अथवा चाँदनी की तह लगाकर आकाश पर उसकी खोली चढ़ायी गयी हो, वैसे ही चन्दन का लेप भगवान् के पूरे शरीर में लगा हुआ दिखायी दिया। जिस सुगन्ध के द्वारा आत्मस्वरूप का तेज और अधिक द्युतिमान् होता है, जिससे ब्रह्मानन्द के दाह का शमन होता है, जिससे पृथ्वी को जीवन प्राप्त होता है, विरक्त संन्यासी भी जिसकी संगति करते हैं और अनंग (कामदेव) भी जो अपने सर्वांग में लगाता है, उस सुगन्ध की महिमा का वर्णन भला और कौन कर सकता है? |
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